A Garland of Devotional Songs
 सरल गीता सार
 Saral Geeta Sar

 The Essence Of Geeta Made Easy

 By Deva Ramananda

जय श्री कृष्ण

Deva Ramananda

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प्रथम अध्याय (१)

 

 

धृतराष्ट्र ने एक दिन, पूछी संजय से बात

धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र में, पांडव कौरव साथ ।।

 

  पांडव व मेरे पुत्रो ने, क्या किया इच्छा से जाय ।

देख सकूँ ना अँधा हूं मैं, अतः दो समजाय ।।

 

संजय ! बोले राजन !, दुर्योधन देखी पांडव सेना ।

द्रोणाचार्य पास जा बोला, आचार्य अब सुन लेना ।।

 

श्रेष्ठ ! देखिये व्यूह रचना, धृष्टद्दुम्न  द्वारा पूर्ण हुई ।

भीम अर्जुन से वीर है, इसमे, युद्ध की आशा पूर्ण हुई ।।

 

राजा द्रुपद, सात्यकि, देखो और विराट ।

कुंतिभोज , पुरूजीत शैव्य, काशिराज का ठाट ।।

 

उतमौजा युधामन्यु, अभिमन्यु सा वीर ।

चेकितान धृष्टकेतु, पुत्र द्रोपदी वीर ।।

 

आचार्य हमारे पक्ष के भी सब सुन लीजिये नाम ।

प्रथम तो आप है, फिर भीष्म कर्ण के नाम ।।

 

कृपाचार्य और अश्वथामा, और   वीर विकर्ण ।

भूरिश्रवा से वीर है, लिये मरण का प्रण ।।

 

जहाँ भीष्म से वीर है, वहां क्या करेगा भीम । 

विजय हमारी ही होगी, देऊं न सुई भर सीम ।।

 

१०

भीष्म की ऱक्षा करना ही, प्रथम हमारा कार्य ।

हर्षित हो तब शंख बजाया, हर्षित हुए आचार्य ।।

 

११

उस काल बजने लगे शंख नगारे ढोल ।

भयङ्कर फिर शब्द हुआ, दे कानो को खोल ।।

 

१२

बैठे हुए थे श्री कृष्ण अर्जुन, सफ़ेद घोड़ो का रथ था ।

दोनो ने भी संख बजाये, वह समर भूमि का पथ था ।।

 

१३

श्री कृष्ण ने पाञ्चजन्य बजाया, पार्थ ने देवदत ।

बजाया भीम ने पौण्ड्रनामक, शब्द था अति वेगवत ।।

 

१४

अनन्तविजय युधिष्ठर ने, बजाया करके घोष ।

सहजदेव ने मणिपुष्पक, नकुल ने सुघोष ।।

 

१५

काशिराज महारथी शिखण्डी, धृष्टध्युमन् और विराट ।

द्रुपद द्रोपदी पांच पुत्र, और अभिमन्यु का ठाट ।।

 

१६

शब्द पूरित है नभ और अवनी, कौरव ह्रदय हे चूर ।

पार्थ बोला श्री कृष्ण से, कौन कौन है शूर ।।

 

१७

अच्युत ! चलिये लेकर रथ को, सेनाओं के बीच ।

कौन कौन है उस और जहाँ दुर्योधन हे नीच ।।

 

१८

रथ को ले चले कृष्ण तब, जहाँ थे आचार्य ।

पितामह आदि स्वजन देख, हे पार्थ को आश्चर्य ।।

 

१९

देखे मामा और थे भाई, पुत्र पोत्र नहीं पराये ।

मित्र सुहृदय जन है ये सबही, मन में करूणा आवे ।

 

२०

शोकमग्न हो अर्जुन बोला सुनिये कृष्ण भगवान ।

आचार्य पितामह को मारू, नहीं दिखती शान ।।

 

२१

हुए शिथिल अब अंग मेरे, मुंह गया है सूख ।

देख स्वजन युद्धभूमि में, युद्ध का बदला रूख ।।

 

२२

जाता है गाण्डीव हाथ से, त्वचा मेरी जलती ।

मन भ्रमित हो रहा प्रभुवर, बुद्धि मुझको खलती ।।

 

२३

कृष्ण ! कैसे खड़ा रहू मैं, नहीं यहाँ कल्याण ।

दिखाते हैं सब विपरीत लक्षण, चाहूँ पाना त्राण ।।

 

२४

नहीं चाहता विजय, कृष्ण ! मैं, ना राज्य ना सुख ।

क्या प्रयोजन? जीवन, भोग, से देते हैं ये दुःख ।।

 

२५

जिनसे राज्य की आशा हमको, खड़े मोह को छोड़ ।

स्वजन मार राज्य करू मैं, है व्यर्थ ये दौड़ ।।

 

२६

गुरुजन, दाऊ, ताउ, मामा, पुत्र, पौत्र सब लोग ।

इन साले ससूर को मारकर, नहीं चाहिये भोग ।।

 

२७

पृथ्वी की तो बात ही क्या, चाहे राज्य मिले त्रिलोक ।

तो भी मार न सकूँ मैं, इनका होता है अति शोक ।।

 

२८

क्या मिलेगा मारूं इनको, जरा सोचिये आप ।

कौरवादि मारने से प्रभुवर, हमें लगेगा पाप ।।

 

२९

हो लोभ से भ्रष्ट  कृष्ण ! जो करते कुल का नाश ।

धिक्कार है ऐसे सुख को, जहाँ धर्म नहीं है पास ।।

 

३०

जानबूझ कर करे क्यों ऐसा, नहीं ये मेरा धर्म ।

जन दिन पाप से बचने का, क्यों न ढूंढे मर्म ।।

 

३१

 हो गया यदि युद्ध में, सारे कुल का ह्वाश ।

इससे तो हो जायगा, सारे कुल का नाश ।।


 

३२

धर्मनाश से हम सबको, लेगा दबा वह पाप ।

होंगी स्त्रियॉं कुल दूषित, फिर वर्णशंकर श्राप ।।

 

३३

तब गिरेंगे नर्क में, पितरो सहित हम सबही ।

धर्म सनातन जाति धर्म, नष्ट होंगे तबही ।।

 

३४

अनंत काल तक नर्क में, पड़े रहेंगे श्याम ।

शोक कि बुद्धि होते हुए भी, नष्ट कूल अभिराम ।।

 

३५

कौरव मारे यदि मुझे तो, है इसमें कल्याण ।

कहे वचन ये पार्थ ने, फेंक दिया है बाण ।।

 

३६

पार्थ रथ में बैठ गया, मन में था अति खेद ।

शोक, सन्तप्त, उद्दिग्न था, जैसे पड़ा हो कैद ।।

 

 

ॐ तत्सदिति “अर्जुन विषाद योग” नामक प्रथम अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 


 



 

द्धितीय अध्याय (२)

३७. आंसू नेत्रों व्याकुलता, शोक सन्तप्त मन खेद ।

जनार्दन बोले पार्थ से, सार जो चारो वेद ।।

 

३८. विषम स्थल में पार्थ तुम्हे, आश्चर्य हुआ अज्ञान ।

                                       आचरण श्रेष्ठ का, कीर्ति स्वर्ग न ज्ञान ।।

 

३९. यह कायरता त्याग कर, हो खड़ा कर युद्ध ।

दुर्बलता को छोडदे, मन को करले शुद्ध ।।

 

४०. पितामह व आचार्य को, कैसे मारू नाथ ।

वे दोनों पूज्य हैं, नहीं चलेगा हाथ ।।

 

४१. गुरुजनो को कैसे मारू, चाहे मांगू भिक्षा ।

     बीते त्यागी, जीवन मेरा, ऐसी देदो शिक्षा ।।

 

४२. रुधिर से रंगे हुए, व्यर्थ अर्थ व काम ।

         गुरुजनो की हत्या से, मिले नर्क का धाम ।।

 

४३. क्या कर्तव्य अब श्रेष्ठ है ना कुछ हमको होंश ।

नहीं जानते जीते कौन व्यर्थ हमारा जोश ।।

 

४४. कायरता है मोह जनित, दो बता राह कल्याण ।

    शिष्य आपका हूँ जनार्दन, सुन पाऊँ में त्राण ।।

 

४५. भले ही मिले राज्य सम्पदा, मिट न सकेगा शोक ।

   ऐसा न हो कि बिगड़े प्रभुवर, इह लोक परलोक ।।

 

१०

४६. निद्राजित पार्थ तब, बोला शोक की वाणी ।

   योगीराज भयातुर हूँ, बोला जोड़कर पाणी ।।

 

११

४७. युद्ध ना करूँगा यह कह कर,हो गया वह मोन ।

      तब हंस कर बोले कृष्णजी, पथ दुःखी अब होन ।।

 

१२

४८. नहीं वचन ये पंडितो के, व्यर्थ तुम्हारा मोह, ।

           क्या गम मरे या मर जायेंगे, पड़े भ्रम में तुम ओह ।।

 

१३

४९. नहीं ऐसा तुम, हम यहाँ, थे नहीं किस काल ।

    और आगे भी सदा रहेंगे, है यह सच्चा हाल ।।

 

१४

५०. जीवात्मा की इस देह में, होती अवस्था तीन ।

    कुमार, युवा व वृद्ध सम, अन्य देह धर लीन ।।

 

१५

५१. इन्द्रिय सुख अनित्य है, है व्यर्थ सब भोग ।

       सुख दुःख को सम जो मने, प्पटे मोक्ष वे लोग ।।

 

१६

५२. अस्तित्व नहीं असत वस्तु का, सत का नहीं अभाव ।

                                      इनको जाने तत्व से, यही ज्ञानी स्वभाव ।।

 

१७

५३. जिससे व्याप्त सारा जग है, होता कभी ना नाश ।

          नाश, अविनाशी, नहीं संभव है, समझ पाओ तुम काश ।।

 

१८

५४. नाशवान यह देह पार्थ है, हो खड़ा कर युद्ध ।

    राग मोह अब छोड़ दे, मन को करले शुद्ध ।।

 

१९

५५. अजर अमर यह आत्मा मारे यह ना मरता है ।

           जो न समझे इस तत्व को, व्यर्थ प्रलाप वह करता है ।।

 

२०

५६. जन्मता है न मरता है , शाश्वत  व पुरातन है ।

       होकर के नहीं होने वाला,केवल नाश होता तन है ।।

 

२१

५७. है ! अर्जुन जो आत्मा का, माने होता न नाश ।

     फिर कौन किसको मारे, समझो तत्व यह खास ।।

 

२२

५८. वस्त्र पुराना त्याग कर, पहिना नया है सुख ।

जीवात्मा बदले को, क्यों होता है दुःख ।।

 

२३

५९. काट सके न शस्त्र इसे, जला सके न आग ।

      गला न सके जल इसे, समझ अरे अब जाग ।।

 

२४

६०. सुखा सके न वायु इसे, यह आत्मा अच्छेद्द ।

     अदाह्य, अक्लेद्द, अशोष्य है, और है अभेद्द ।।

 

२५

६१. सर्वव्यापक निसंदेह सदा, अविचल और सनातन है ।

             अचिन्त्य, अव्यक्त और अविषय, रूप बदलता केवल तन है ।।

 

२६

६२. जन्म मरण माने फिर भी तूँ, कर कुछ मत तूँ शोक ।

                                     जन्मा है वह जायगा, मान कलेजा ठोक ।।

 

२७

६३. विदेह जन्म से पूर्व थे, और मृत्यु के बाद ।

   मध्य में जाने देह है, है यह सच्चा वाद ।।

 

२८

६४. देखे, कहे और सुने, आश्चर्य से कोई वीर ।

पार्थ इसे पहचान ले, लगे कलेजे तीर ।।

 

२९

६५. देख सुन कर भी, जान न पाये भेद ।

       चक्कर कहते रहते है, रहे पड़े वो केद ।।

 

३०

६६. सदा अवध्य है आत्मा, मार सके न कोय ।

      पार्थ व्यर्थ है शोक तेरा होनी होय सो होय ।।

 

३१

६७. भय रखता सखा यदि तूँ, नहीं यह नहीं यह तेरा धर्म ।

                                     युद्ध करना ही धर्म तेरा ले समझ यह मर्म ।।

 


३२

६८. क्षत्रिय धर्म को समझ करे जो, कर्तव्य अपना सारा ।

                                      धन्य है वह वीर ही खुले स्वर्ग का द्धार ।।

 

३३

६९. इस धर्म युक्त संग्राम में, नहीं खींचे यदि चाप ।

      खोये स्वधर्म और कीर्ति को, अवश्य लगेगा पाप ।।

 

३४

७०. कथन करेंगे अपकीर्ति का, बहु काल बहु लोग ।

 माननीय अतिबुरी, अधिक मरण के योग ।।

 

३५

७१. महारथी कहेंगे तुम्हे, पार्थ, युद्ध उपराम ।

     व्यर्थ है यह तुच्छता, करे तुम्हे बदनाम ।।

 

३६

७२. निंदा करेंगे वैरी जन, होगा मन में दुःख ।

      न कहने के वचन कहेंगे, कहाँ रहेगा सुख ।।

 

३७

७३. विजय यदि हुई पार्थ तुम्हारी, मिले यहाँ सुख भोग ।

 मारे गये यदि युद्ध में, तो सुख स्वर्ग का योग ।।

 

३८

७४. युद्ध करना ही श्रेष्ठ है, हो यह सुन्दर कार्य ।

   संशय सारा त्याग दे, उठ खड़ा हो आर्य ।।

 

३९

७५. नहीं इच्छा स्वर्ग राज्य की, सुख दुख समझ समान ।

 हानि लाभ सम समझ कर, खिंचले तीर कमान ।।

४०

७६. युद्ध करने से पार्थ तुम्हे, नहीं लगेगा पाप ।

       निश्चय दृड़ करले मन में, और खिंचले चाप ।।

 

४१

७७. कहा सब यह सब बुद्धि हित, यह ज्ञान का योग ।

    कहूँ आगे अब पार्थ मैं, निष्काम कर्म का योग ।।

 

४२

७८. उसके पालन से होगा तेरे, कर्म बन्ध का नाश ।

     जन्म मृत्यु भय से तारे, हे इसका फल खास ।।

 

४३

७९. इस कल्याण मय मार्ग की, निश्चय बुद्धि एक ।

अज्ञानियों की बुद्धि में, होते भेद अनेक ।।

 

४४

८०. केवल फल की इच्छा वाले, मने स्वर्ग ही श्रेष्ठ ।

जन ऐसे अविवेकी हैं, पहुँच न पाये ठेठ ।।

 

४५

८१. चित रहे हरा हुआ, आसक्ति रहे सुख भोग ।

   निश्चय बुद्धि रहे नहीं, नहीं उतम वे लोग ।।

 

४६

८२. सुख दुःख द्धंद से रहित हो तज क्षेम और योग ।

    कर प्रकाश निष्कामी बने धन्य धन्य वे लोग ।।

 

४७

८३. बड़ा जलाशय मिलने पर, नही छोटे से काम ।

  ब्रह्म प्राप्ति होने पर, नहीं वेद से काम ।।

 

४८

८४. कर्म किये का पार्थ तूँ, फल की मत कर चाह ।

  कर्म हित आलस्य से, कभी न निकले आह ।।

 

४९

८५. आसक्ति धनंजय त्याग दे, रख सदा सम भाव ।

 सिद्धि असिद्धि योग कर, पार लगेगी नाव ।।

५०

८६. बुद्धि योग से सकाम कर्म, है अति ही तुच्छ ।

  समत्व योग को मानले, शेष रहे न कुछ ।।

५१

८७. फल की इच्छा रखने वाले, रहे सदा ही दीन ।

      अनासक्त भाव से जो रहे, सदा ब्रह्म में लीन ।।

 

५२

८८. समत्व बुद्धि युक्त पुरुष, छोड़े पुण्य और पाप ।

लिपटें नहीँ उंनसे कभी, कर्म नाश है आप ।।

 

५३

८९. ज्ञानी जन कर्मों के फल को, नहीं रखते हैं पास ।

जन्म बंध से छूटते, पाते परम पद खास ।।

 

५४

९०. मोह रूप दल दल से, तरे बुद्धि जिस काल ।

     प्राप्त हो वैराग्य को, चले नहीं अन्य चाल ।।

 

५५

९१. अनेक सिद्धांत से विचलित इड़ा, होगी जब अचल ।

समत्व भाव आजायेगा, फिर न सकेगा टल ।।

 

५६

९२. स्थिर बुद्धि के लक्षण क्या हैं, खड़े जोड़ कर पाणी ।

कैसे चलता बोलता, तब केशव बोले वाणी ।।

 

५७

९३. सम्पूर्ण कामना त्याग दे, हो जाये संतोष ।

       स्थिर बुद्धि के लक्षण हैं नहीं स्वार्थ का होंश ।।

 

५८

९४. सुख दुःख जो सम मानता, नहीं क्रोध भय राग ।

    अर्जुन ! मुनि वह धन्य है, रहे वह सदा जाग ।।

 

५९

९५. शुभ, अशुभ वस्तु का, नहीं सुख और दुःख ।

रहे सदा सम भाव में, बदलता रुख ।।

 

६०

९६. किसी को आते देख कर, ले कछुआ अंग समेट ।

स्थिर बुद्धि इन्द्रियों को, लेता यूँही समेट ।।

 

६१

९७. विषय निवृत हो जाने पर, छूट न सके राग ।

    ऐसे पुरुष के पार्थ सुन, पास न आये राग ।।

 

६२

९८. अतः सम्पूर्ण इन्द्रियों को, वष करना चाहिए ।

          मेरे परायण समाहित चित हो, स्थिर रहना चाहिए ।।

 

६३

९९. विषयों के चिंतन से, आसक्ति पैदा होती है ।

         आसक्ति से उन विषयों की, कामना पैदा होती है ।।

 

६४

१००. विघ्न पड़े ज्योंही इसमे, बीज क्रोध का बोती है ।

       क्रोध से सुन पार्थ हमारी, बुद्धि सदा यह सोती है ।।

 

६५

१०१. स्मरण शक्ति नष्ट होने से, हो ज्ञान का नाश ।

         साधन से वह गिर जाता है, तत्व न समझे खास ।।

 

६६

१०२. राग द्धेष रहित जो जन, अंतर मन से रहे प्रसन ।

 बुद्धि स्थिर हो जाती है, यही योग्य आसन ।।

 

६७

१०३. साधन रहित जो पुरुष हैं, उंनकी बुद्धि नहीं है श्रेष्ठ ।

नास्तिक को शांति कहाँ, सुख न पावे श्रेष्ठ ।।

 

६८

१०४. हर लेती है वायु नाव को, जब होती जल के बीच ।

   मन विषयों में यदि रहे, तो रहे बुद्धि में कीच ।।

 

६९

१०५. रह कोई पा न सके, बुद्धि जिसकी अस्थिर ।

           इन्द्रियां जिसने वश में करली, बुद्धि उसकी स्थिर ।।

 

७०

१०६. साधारण जन हैं, योगी रहता जाग ।

           सांसारिक जब जगाते है, सोता वह महा भाग ।।

 

७१

१०७. विविध सरिताएँ आ आ कर, सागर में आ मिलती है ।

         निर्विकार पुरुषा के मन में, कलियाँ शांति की खिलती है ।।

 

७२

१०८. ममता और कामना को, जिसने दिया है छोड़ ।

       निश्चय शांति वह पाता, कर सके न कोई होड़ ।।

 

७३

१०९. पार्थ ! स्थिति ब्रह्मनिस्ठ की, नहीं दुःख में खिन्न ।

                                      अंतकाल आनंद है, हो ब्रह्म में लीन ।।

 

ॐ तत्सदिति ”सांख्य योग” नामक द्धितीयो अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

 


 

तृतीय अध्याय (३)

११०. पार्थ बोला कृष्ण से, नहीं श्रेष्ठ ज्ञान से कर्म ।

प्रवृत क्यों करते कर्म में, समझादो यह मर्म ॥

 

१११. मिले हुए वचन से, नहीं मोह का त्राण ।

निश्चय बात बताइये, हो जाये कल्याण

 

११२. अर्जुन ! सुन इस लोक में, दो प्रकार के योग ।

निष्ठा ज्ञान से ज्ञानी जन की, निष्काम कर्म का योग

 

११३.  त्याग करने से, मिले सच्ची राह ।

कर्म तो होता ही हे, चाहे निकले आह

 

११४. त्याग कर्म को हठ से कोई, मन से चिंतन करता है ।

वह दम्भी कहलाता है, स्व बुद्धि को हरता है

 

११५ मन से इन्द्रियां वश में करजो, कर्म सदा ही करता है ।

श्रेष्ठ है वह दुःख रहित है, मौज से वही मरता है

 

७ 

 ११६ कर्म करना श्रेष्ठ है, यही धर्म की राह

कर्म त्याग से निर्वाह कठिन है, अपूर्ण युक्ति की चाह

 

११७ आसक्ति रहित हो कर्म किये जा, हो जाये कल्याण

यही धर्म है, यही यज्ञ है, सुख से निकले प्राण

 

११८ बिना दीन को दान दिए, कहते है जो लोग

वे पाप को खाते है, व्यर्थ हैं उंनके भोग

 

१०

११९ दान अंत का है बड़ा, नहीं करते वो चोर

भूखा तड़फे पास में, कैसे खाए कोर

 

११

१२० होते उत्पन्न अन्न से, समस्त यहाँ के जीव

अन्न होता वृष्टि से, जीते उसे सब पीव

 

१२

१२१ वृष्टि होती यज्ञ से, कर्मों से होता यज्ञ

कर्म हुआ है वेद से, सत्कर्म सभी है यज्ञ

 

१३

१२२ वेद ईश्वर से हुए, ईश्वर सब में लीन

अतः यज्ञ में ईश्वर है, नहीं मेख और मीन

 

१४

१२३ शास्त्र विधि से नहीं चलते जो, व्यर्थ हे उनका जीना

पापी और पामर कहलाते, व्यर्थ है खाना पीना

१५

१२४ आत्मा से प्रेम है जिनको,  है उसी में लीन

नहीं प्रयोजन कर्म से, कभी होते खिन्न

 

१६

१२५ करने से या करने से, किंचित नहीं प्रयोजन है

नहीं स्वार्थ उसका कुछ भी, सबके लिए सुयोजन है  ॥

 

१७

१२६ निर्लिप्त भाव से कर्म कियेजा, मिले प्रभु संग

पाई सिद्धि जनकादि ने, नहीं भान  था अंग

 

१८

१२७ महापुरुष का आचरण, करे अन्य सब लोग

प्रमाण उसका मानते, कर पाते सुख भोग

 

१९

१२८ कर्म नहीं त्रिलोक में, मेरे लिए तूँ  जान

फिर भी कर्म में लीन हूँ, नहीं तो टूटे आन

 

२०

१२९ यदि कर्म त्याग दूँ पार्थ ! मैं, नक़ल करे सब लोग

होंगे लोक सब  भ्रष्ट सुन, और हनन सब लोग

 

२१

१३० आसक्त हो अज्ञानी जन, (जैसे) कर्म जगत के करता है

अनासक्त भाव से ज्ञानी वैसे, लोक कर्म को करता है

 

२२

१३१   ज्ञानी का कर्तव्य यही है, भ्रम कहीं होने दे

परमात्मभाव में  स्थित हुआ, कर्म से विमुख होने दे

 

२३

१३२ सम्पूर्ण कर्म होते है, सुन पार्थ ! प्रकृति द्धारा

अहंकार से अज्ञानी कहता, "मेने किया है सारा"

 

२४

१३३ गुण कर्म विभाग के जो, तत्व को जानने वाला है

"यह सारा मेने किया है", कभी कहने वाला है

 

२५

१३४ गुण कर्म से जो लिप्त जो जन है, कभी चलायमान करे

ज्ञानी का कर्तव्य यही है, ढंग से उंनके कष्ट हरे  ॥

 

 २६

१३५ ममता और आशा रहित हो, अर्पण मुझको करदे कर्म

दुःख रहित हो युद्ध तूँ कर अब, समझ गहन यह मर्म

 

२७

१३६ सुबुद्धि और श्रद्धा से युक्त हो, जो पालन इसका करता है

स्वयं छूटता सर्व कर्मों से, जग के कष्ट वह हरता है

 

२८

१३७ अश्रद्धा से युक्त जो जन है, नहीं  पाते कल्याण

उल्टे कर्म ही करते है, नहीं पाते वे त्राण

 

२९

१३८ हठ योग से लाभ नहीं, प्रकृति वस सब होता है

मूर्ख ! अच्छी बातों के अवसर , आँख मूंद कर सोता है

 

३०

१३९ राग द्धवेष से दूर रहे, लग जाएगा पार

कल्याण मार्ग के विघ्न हैँ, देते नहीं कुछ सार

 

३१

१४० उतम धर्म हमारा है, अच्छा इस हित मरना है

धर्म अन्य का देता भय है, व्यर्थ कार्य नहीं करना है

 

३२

१४१ फिर किससे प्रेरित हो कर, करता है सब पाप

पार्थ बोला कृष्ण से, बता दीजिये आप

 

३३

१४२ यह काम क्रोध का मूल है, यही बड़ा है वैरी

पापी कभी तृप्त होता, जन की करता ढेरी

 

३४

१४३ धुएं से अग्नि, मल से दर्पण, जिस  प्रकार ढ़क जाता है

वैसे ही ज्ञान यह काम के द्धारा, सुनो पार्थ ढ़क जाता है  ॥

 

३५

१४४ मन, बुद्धि इन्द्रियों में, इस काम का वास

मोहित करता जीव को, कर इसका तूँ  नाश

 

३६

१४५ इन्द्रियों को वश में करले, काम पापी को मार

ज्ञान विज्ञान का वैरी है, देता होने पार

 

३७

१४६ इन्द्रियां श्रेष्ठ बलवान है, इनसे से परे है मन

है बुद्धि मन से परे, समझे है यदि जन

 

३८

१४७ परे बुद्धि से आत्मा, सदा जहाँ आनंद

समझ काम को मारदे, दीन सदा आनंद

 

३९

१४८ वश करले मन बुद्धि से, समझ शक्ति का रूप

अजर, अमर है आत्मा, अलख, अनादि अनूप

 

ॐ तत्सदिति “कर्म योग” नामक तृतीय  अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

चतुर्थ अध्याय (४)

१४९.  कहा सूर्य को कल्प आदि में, यह अविनाशी योग ।

कहा कृष्ण ने पार्थ ! सुन, रहे मन में रोग ।।

१५०. सूर्य ने स्व पुत्र मनु को, कहा यह उतम ज्ञान ।

कहा मनु ने स्व पुत्र को, इक्ष्वाकु नाम ।।

 

१५१. परम्परा से प्राप्त योग को, राजर्षियों ने जाना ।

किन्तु बाद में हुआ लोप वह, नहीं किसी ने जाना ।।

 

१५२. वही पुरातन योग यह, कहूँ पार्थ ! सुन बात ।

तूँ ममः भक्त अरु प्रिय सखा, सुन रहस्य की बात ।।

 

१५३. बोला अर्जुन ! कृष्ण तुम्हारा, जन्म हुआ इस काल ।

जन्म भानु का अति पुराना, कैसे कहो सब हाल

 

१५४. तेरे मेरे कई जन्म यहाँ, अर्जुन ! हुए हैं जान ।

नहीं स्मरण वे कुछ तुझे, मुझे स्मरण सब जान

 

१५५. मै अविनाशी अजन्मा हूँ, भूत जीवों का रक्षक हूँ ।

योग माया से प्रकट हो कर, दुष्टों का मैं भक्षक हूँ ।।

 

१५६. जब जब धर्म पर संकट आता, और अधर्म बढ जाता ।

तब लेता अवतार पार्थ मैं, पाप मिटने आता ।।

 

१५७. साधुओं के उद्धार हित, दुष्टों का नाश ।

स्थापना करता हूँ, मैं भक्तों का दास ।।

 

१०

१५८. मेरा वह जन्म अलोकिक, दिव्य रूप है जान ।

जो तत्व से जानता, मुक्ति करता पान ।।

 

११

१५९. राग, भय रहित क्रोध से, हुए पूर्व लोग ।

स्वरूप को पा गए, ज्ञान, रूप, तप, योग ।।

 

१२

१६०. जो मुझको जैसे भजता, मैं वैसे ही भजता हूँ ।

जो जानते इस रहस्य को, उंनको वैसे ही सजता हूँ ।।

 

१३

१६१ कर्मों का फल मन में रख कर, देवों को जो भजते है ।

पा नहीं सकते वे भर्मित जन, सदा चक्र में रहते है ।।

 

१४

१६२. गुण कर्म विभाग से में, रचे वर्ण सुन चार ।

उंनका कर्ता अविनाशी हूँ, सर्व रूप है सार ।।

 

१५

१६३. सर्व कर्ता तो भी अकर्ता, नहीं कर्मों में लीन ।

जो तत्व यह जानता, कभी होता खिन्न ।।

 

१६

१६४. पूर्व में जो हो गये, यहाँ मुमुक्ष जन ।

तूँ भी वैसा बन अरे, पूर्ण लगाले मन

 

१७

१६५. कर्म और अकर्म क्या है, बुद्धि जन चकराते है ।

तत्व तुझसे कहता हूँ, सुन, कोई नहीं घबराते है

 

१८

१६६. गहन गति है कर्म की, कर्म अकर्म है जान ।

निसिद्ध कर्म क्या है यहाँ, इनको ले पहिचान ।।

 

१९

१६७. अहंकार रहित  हो कर्म करे, समझ त्याग का सार ।

पुरुष वाही यहाँ धन्य है, दूँ उनको मैं तार ।।

 

२०

१६८. संकल्प रहित कर्म है जिसके, नहीं कामना शेष ।

जले कर्म सब ज्ञान से, सच पंडित का वेष ।।

 

२१

१६९. केवल शरीर से कर्म करे, नहीं लगता है पाप ।

अंतःकरण से शुद्ध है, तिर जाता है आप ।।

 

२२

१७०. संतुष्ठ रहे जो पाया है, रखे सदा सम भाव ।

लिप्त होवे कर्म से, लगे पार तब नाव ।।

 

२३

१७१. अर्पण करता ब्रह्म है, हवन द्रव्य है ब्रह्म ।

अग्नि ब्रह्म, सब ब्रह्म ही ब्रह्म है, पाता वह भी ब्रह्म ।।

 

२४

१७२. योगी जन यज्ञ हैं करते, इन्द्रिय जीत कहलाते है ।

काम,क्रोध,मद , लोभ छोड़कर, मुझसे दिल बहलाते है ।।

 

२५

१७३.लोग सेवा में रत हैं रहते, कई अष्टांग योगी होते है ।

अहिंसादि व्रत है करते, कई बीज प्रेम का बोते है ।।

 

२६

१७४. कई नाम का जप हैं करते, कई करते है प्राणायाम ।

शुभ कर्म सभी सुन यज्ञ है, सुबह हो या शाम ।।

 

२७

१७५. यज्ञ रहित जन को नहीं, शुभ दायक यह लोक ।

यज्ञ यहाँ जो करते है, सुधरे लोक परलोक ।।

 

२८

१७६. नानाभाँति  यज्ञ  यहाँ,  कहते चारो वेद ।

निष्काम कर्म करता रहे, हो नहीं किंचित खेद ।।

 

२९

१७७. ज्ञान सबसे श्रेष्ठ है, शेष रहे फिर मोह ।

सत , चित , आनंद को, मनुज समझे ओह ।।

 

३०

१७८. क्यों हो कितना भी पापी, ज्ञान लगाये पार ।

ज्ञान रूप नोका ऐसी है, दे भव से वह तार ।।

 

३१

१७९. जले काठ तो आग में, ज्ञान जलाये कर्म ।

अतः ज्ञान ही श्रेष्ठ है, ले समझ यह मर्म ।।

 

३२

१८०.  जितेन्द्रिय श्रद्धा से युक्त हो, पा जाता है ज्ञान ।

परम शांति को पा जाता है, नहीं जग का कुछ भान ।।

 

३३

१८१. भगवत् विषय को जाने नहीं, परमार्थ से डिग जाता है ।

दोनों लोक बिगड़ जाते है, कभी शांति पाता है ।।

 

३४

१८२. अर्जुन ! संशय काट कर, ले ज्ञान रूप तलवार ।

हो खड़ा अब युद्ध कर, मोह त्याग, ललकार ।।

 

  तत्सदिति “ज्ञान कर्म सन्यास योग” नामक चतुर्थ अध्यायः  समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

 

पञ्चम अध्याय (५)

 

१८३. निष्काम कर्म और कर्म सन्यास में, क्या है कृष्ण श्रेष्ठ ।

      तारीफ़ दोनों की करते हो, मन में उठता प्रश्न ।।

 

१८४. दोनों कल्याण के दाता है, ये लगावे   पार ।

        किन्तु सुगम निष्काम कर्म है, आवे नहीं कुछ भार।।

 

१८५. अर्जुन त्यागे जिस पुरुष ने, काम, क्रोध अभिमान ।

        लोभ, द्धेष को त्याग दे, वह स्वयं भगवान ।।

 

१८६. सन्यास व निष्काम कर्म में, नहीं कुछ भी है भेद ।

        भेद माने वो मुर्ख जन, नहीं पंडित ज्ञाता वेद।।

 

१८७ सांख्य योगी जाने तत्व से, माने कुछ नहीं करता हूँ।

       अर्थों  बरतती इन्द्रियां, नहीं कुछ भी हरता हूँ ।।

 

१८८ शब्द, स्पर्श से लिप्त न होव, न रूप, रस या गंध ।

       चलता, बोले, या बैठता , बने कभी न अंध ।।

 

१८९ कृष्णार्पण करदे कर्मों को, दे आसक्ति त्याग ।

       कमल सम रहे सदा, है वह  महाभाग ।।

 

१९० अंतःकरण की शुद्धि हित, करे योगी सब कर्म ।

       सकमी फल हैं चाहते, समझे नहीं यह मर्म

 

१९१.  मोहित हो रहे  जीव सब, ढ़का माया ने ज्ञान।

        पुण्य ग्रहण कभी न करे, यह माया   भगवान।।

 

१०

१९२. ज्ञान से अज्ञान का, हो गया है नाश ।

        सुन भानु सम, सदा करे प्रकाश ।।

 

११

१९३.  भेद न माने ज्ञानी जन, हो विप्र या महा होम ।

        हाथी, कुता, भेड़ हो, सबको समझे ओम।।

१२

१९४. सम भाव में स्थित सदा, जीत लिया संसार

       ऐसे जन संग ब्रह्म है, हो भव से सब पार ।।

 

१३

१९५. हर्ष न होवे प्रिय वस्तु पा, जाये पर नहीं शोक ।

       निश्चय ब्रह्म में लीन हो, नहीं सकता कोई रोक ।।

 

 

  तत्सदिति  “कर्म सन्यास योग” नामक पञ्चम अध्याय  समाप्त ।

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

 

षष्ठम अध्याय (६)

१९६. कर्म फल चाहे नहीं, करे सदा शुभ   कर्म ।

सन्यासी वह योगी है, जाने धर्म का मर्म ।।

 

१९७. त्यागे नहीं संकल्प है जिसने,  योगी नहीं कहलाता है ।

निष्काम भाव से कर्म करे जो, कभी नहीं पछताता है ।।

 

१९८. नहीं कोई मित्र और शत्रु, स्वयं स्वयं का सब कुछ है ।

भव से होव पार या वह करे, नर्क को कूच है ।।

 

१९९. सर्दी, गर्मी या सुख दुःख में, जो सदा है सम ।

अनादर या अपमान में, करे कभी गम ।।

 

२००.कभी करे लोभ पार्थ सुन, कनक मिटटी सम मान ।

है धरणी पर धन्य वही, ले खुद को पहचान ।।

 

२०१.यदि मन को वश में कर लिया, मानो लगा है पार ।

मोह माया में लिप्त से, नहीं आता कुछ लार ।।

 

२०२. अति खाता या कुछ नहीं  खाता, अति सोता या रह जागता ।

सिद्ध होता योग ऐसों को, नहीं शांति को पाता ।।

 

२०३ यथा योग्य आहार शयन हो,   होता सिद्ध है योग ।

परम शक्ति को पाता है, नहीं कभी दुःख भोग ।।

 

२०४. वायु रहित स्थान में जैसे, दीपक बुझ नहीं सकता है ।

वैसी ब्रह्म वेता की स्थिति, योगी वही लगता है ।।

 

१०

२०५. संकल्प उत्पन्न होते ही, करदे उसका नाश ।

मन, इन्द्रियां वश में करले, वही योगी है खास ।।

 

११

२०६ सबमे मुझे जो देखता, समझ वह है सार ।

मैं भी उसको देखता, देता हूँ में तार ।।

 

१२

२०७. मन अति चञ्चल होता है, महावीर बलवान ।

कैसे वश में कृष्ण हो, देदो अब यह ज्ञान ।।

 

१३

२०८.निसंदेह यह चञ्चल होता, सत्य पार्थ ये बात ।

अभ्यास, वैराग्य, वस हॉट है, करे कभी घात ।।

 

१४

२०९. चाहे मन को वश करना, नहीं सकता  मन जीत ।

साधन करता प्रयत्न से, ले जीत मन नित ।।

 

१५

२१०. शिथिल यत्नी जो लोग कृष्ण ! है, साध सके योग

किस गति को पाते हैं, कहो ऐसे वे लोग ।।

 

१६

२११.साधन शिथिल होने से, साध सके योग ।

नष्ट दोनों और से, ना हरि ना भोग ।।

 

१७

२१२. इस संशय को दूर कर, है योग्य ही आप ।

नहीं संभव कोई अन्य है, वही उतारे आप ।।

 

१८

२१३.ऐसे पुरुष का पार्थ सुन, कभी होता नाश ।

इस लोक परलोक में, कही होता  हाव्श

 

१९

२१४. शुभ कर्म जो सदा करता है, दुर्गति को नहीं पाता है ।

किन्तु स्वर्ग सुख भोग के वो, पुनः जन्म ले आता है ।।

 

२०

२१५. उन लोको में यदि नहीं गया तो, योगी के यहाँ आता है ।

ऐसा जन्म अति दुर्लभ है, पूर्व कमाई पाता है ।।

 

२१

२१६. पूर्व के अभ्यास सब, बताते भगवत राह ।

त्याग देता सकाम फलों को, करता युक्ति चाह ।।

 

२२

२१७. मंद प्रयत्न का यह हाल है, तब योगी की क्या बात ।

परम गति को पाता है, सदा प्रभु के साथ ।।

 

२३

२१८. तपस्वी  एवं पंडित से, श्रेष्ठ योगी होता है ।

अतः पार्थ ! तूँ   योगी बन जा, भोगी केवल सोता है ।।

 

२४

२१९ निरन्तर मुझे जो मन से भजता, ऐसा योगी प्यारा है ।

परम श्रेष्ठ वही धन्य है, काटे कष्ट वह सारा है ।।

 

ॐ तत्सदिति   “आत्म संयोग” नाम छठा अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

सप्तम अध्याय (७)

 

२२०. अनन्य प्रेम पुजारी हो, रहे लीन ममः योग।

कहूँ रहस्य अब   पार्थ सुन, पार लगेंगे लोग ।।

 

२२१. हजारो में कोई एक विरला, मुझे पाने का यत्न करे ।

उनमें से भी विरला कोई, जान तत्व से ध्यान धरे ।।

 

२२२. पृथ्वी, जल तथा अग्नि, वायु और आकाश ।

मन, बुद्धि अहंकार में, आठ प्रकति खास ।।

 

२२३. यह अपरा या जड़ प्रकृति मेरी, द्धितीय चेतन या परा ।

सम्पूर्ण जगत यह धारण उससे, सुन वचन मेरा खरा ।।

 

२२४. दोनों प्रकृति से उत्पन्न हुए, सम्पूर्ण यहाँ के जीव ।

उत्पति तथा प्रलय मैं करता, ध्यान धरले हीय ।।

२२५ धनञ्जय सुन मेरे सिवा, नहीं अन्य कुछ चीज 

सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हूँ, मैं सबका हूँ बीज ।।

 

२२६. सम्पूर्ण भूतों का कारण हूँ, तपस्वियों  तेज ।

बुद्धिमानों की बुद्धि में हूँ, बलियों को बल देता देता भेज ।।

 

२२७. सत्व, रज व तम से जो, पैदा होते भाव ।

सब मेरे से होते है, फिर भी निर्लिप्त हैं हाव ।।

 

२२८. तीनो गुणों से संसार यह सारा, मोहित हो रहा है ।

        परे इन सबसे, नहीं तत्व को जाने, वह सो रहा है ।।

 

१०

२२९ बड़ी दुस्तर त्रिगुण मयी माया, जो मुझे ही भजता है । 

       लांघ माया को ज्ञानी बनता, भव  सागर वह तिरता है ।।

 

११

२३०.मूढ़ लोग भजते नहीं, यदभि सुगम उपाय ।

      आसुर बुद्धि वे नीच हैं, नहीं राह वो पाय ।।

 

१२

२३१. अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु, ज्ञानी चार प्रकार के भक्त ।

       ज्ञानी सबसे उतम है, अति प्रिय हर वक्त ।।

 

१३

 २३२. बहु जन्मों के अंत में, कहीं हो पाये ज्ञान ।

वासुदेव ही वह सब है, दुर्लभ उसको जान ।। 

 

१४

२३३. भोग कामना रख कर जो, भ्रष्ट ज्ञान से होते है ।

       पूजा करते अन्य देवों की, विचारों के थोते हैं ।।

 

१५

२३४. सकाम भाव से जो जिसको भजता, श्रद्धा होती पूरी ।

       वही देव मिलवाता उसको, नहीं रखता कुछ दुरी ।।

 

१६

२३५. जो चाहता जैसा भोग है, सब कुछ उसको मिलता है ।

        यदि सींचेगा पौधा कोई, फूल अवश्य खिलता है ।।

 

१७

२३६. पर नाशवान है वह फल उनका, अल्प बुद्धि का काम ।

        प्राप्त होते अंत देवों को, नहीं मोक्ष का नाम ।।

 

१८

२३७. पर जो मुझको जैसे भजता है, अंत में मुझको पाता है ।

       मेरी ज्योति में मिल कर वह, अनंत काल तक सुख पाता है ।।

 

१९

२३८. योग माया से मैं आता हूँ, जो नहीं जानते भेद ।

        मनुष्य मुझको मानते, है बुद्धि पर खेद ।।

 

२०

२३९. मुझ अविनाशी का, अज्ञानी जन, जन्म मरण माने है ।

        काम,क्रोध लोभ में उलझे, नहीं तत्व को जाने है ।।

 

२१

२४०. निष्काम भाव से जो करते, नष्ट हुए सब पाप ।

        मेरी शरण में आते हैं, ब्रह्म को जाने आप ।।   

 

२२

२४१. अधिभूत, अधिदेव और अधियज्ञ मुझ वासुदेव को जाने ।

        अंत में मुझ में लीन हैं होते, मुक्ति स्वाद पाने को ।।

 

ॐ तत्सदिति “ज्ञान विज्ञान योग” नामक सप्तम अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

अष्ठम अध्याय (८)

 

 

२४२.  ब्रह्म क्या और अध्यात्म क्या है, और क्या है कर्म ।

अधिभूत व अधिदेव क्या है, प्रभू समझादो मर्म ।।  

 

२४३. अधियज्ञ क्या है प्रभुवर, कैसे जाना जाता है ।

        अंत में कैसे याद आते तुम, क्या जीव ब्रह्म का नाता है ।।

 

२४४. जिसका कभी नाश न होता, ऐसा तो है ब्रह्म ।

        जीवात्मा को अध्यात्म है कहते, द्रव्य त्याग है कर्म ।।

 

२४५. उत्पति विनाश वाले पदार्थ, अधिभूत कहलाते है ।

       पुरुष हिरण्यमय अधिदेव, सत्य तुम्हे बतलाते है ।। 

 

२४६. इसी शरीर में मैं वासुदेव ही, अधियज्ञ हूँ अर्जुन सुनले ।

       स्मरण करने अंत में जाते, पाते मुझको यह सुनले ।।

 

२४७. अंतकाल में जो जैसा स्मरण कर, सुन यहाँ से जाता है ।

        उस स्मरण अनुसार बाद में, वैसा जीवन पाता है ।।

 

२४८. सदैव जिसका चिंतन करता, अंत में वही आता है याद ।

       अतः स्मरण कर निरंतर मेरा, युद्ध भी करना रख तूँ याद ।।

 

२४९. परमेश्वर के ध्यान का, हो   जिसको अभ्यास ।

        सचिदानंद को पाता है, होता नहीं निराश ।।

 

२५०. सर्व नियंता सर्वज्ञ अनादि, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म ।

        स्मरण ऐसे विभु का करता, मानूँ उसका हुक्म ।।

 

१०

२५१. योग बल से मध्य भृकुटि, रख कर अपने प्राण । 

       दिव्य रूप स्मरण से पाता, होता देह का त्राण ।।

 

११

२५२. वेद ज्ञाता प्रभु को कहते, परम नाम ओंकार ।

        'देव' महात्मा यत्न करे सब, अंत में लगते पार ।।

 

१२

२५३. सब इन्द्रियों को वश में करके, रखे मस्तक प्राण ।

       ॐ अक्षर का उच्चारण करके, करे देह का त्राण ।।

 

१३

२५४. परम पद वह पा जाता है, होता ब्रह्म में लीन ।

       अखंड स्मरण जो करता मेरा, योगी कभी न होता खिन्न ।।

 

१४

२५५. पुनर्जन्म नहीं होता फिर है, मुझको ही पा जाता है ।

        ब्रह्म लोक में जाने वाला भी, एक दिन वापस आता है ।।

 

 

१५

२५६. हजार चोकड़ी युग अवधि है, ब्रह्मा के दिन रात की ।

        योगी जान काल तत्वों को जाने, करे खोज इस बात की ।।

 

१६

२५७. सम्पूर्ण दृश्य जगत यह जो है, ब्रह्मा से पैदा होता है ।

        निशा ब्रह्मा की जब है आती, लय उसमे हो सोता है ।।

 

१७

२५८. शतायु होकर ब्रह्मा भी, होता शांत स्वलोक ।

        अति पर जो विलक्षण ब्रह्म है, बुझती कभी न ज्योत ।।

 

१८

२५९. अव्यक्त अक्षर जिसे कहा है, वह भाव परम गति है ।

        परम धाम मेरा पाता है, हो जिसकी सुमति  है ।।

 

१९

२६० सर्व लोक है अंतर्गत ब्रह्म के, परिपूर्ण जगत है  सारा ।

       भक्ति से पाने योग्य परम पुरुष है, नहीं और कुछ चारा ।।

 

२०

 २६१. पीछा न आने न आने की गति की, दूँ बता मैं बात ।

         मार्ग दो शुक्ल, कृष्ण है, दूँ बता मै तात ।।

 

२१

२६२.  अग्नि उतरायण   का अभिमानी, देवता रहता है छः मास ।

         उस मार्ग में मर कर जो जाता, नहीं आने की आस ।।

 

२२

२६३. धूमाभिमानी कृष्णपक्ष का, दक्षिणायन छः मास ।

        उस समय जो मरता है, पुनः पृथ्वी की राह ।।

 

२३

 २६४. शुक्ल कृष्ण के मार्ग दोनों ही, माने गये सनातन है ।

         देवयान व पितृयान हैं कहते, फल देते छूटे तन है ।।

 

२४

२६५. देवयान में जो जाता है, नहीं लोट कर आता है ।

        पितृयान जो जाता है, वह आ फिर से दुःख पाता है ।।

 

२५

२६६. जिसको ज्ञान हो जाता है, वह शुक्लपक्ष का मार्ग ।

        अज्ञानी जो रहता है, वहां कृष्णपक्ष का मार्ग ।।

 

२६

२६७. जान लेता जो इस तत्व को, वह परमधाम को पाता है ।

        मोहित नहीं होता किसी पर, देवयान को जाता है ।।

      

२७

२६८. यज्ञ, तप व दानादि से, ऊपर उठता योगी है ।

        परम पद को पा ही लेता, कभी न रहता भोगी है ।।

 

 

ॐ तत्सदिति “अक्षर ब्रह्मयोग” नामक अष्ठम अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति



नवम अध्याय (९)

 

२६९. तूँ दोष रहित है भक्त मेरा, कहूँ रहस्यमय ज्ञान ।

दुःखमय संसार का, रहे न किञ्चित भान ।।

 

२७०. सर्व  विद्दाओं का राजा है, परम तत्व का सार ।

अति उतम व साधन सुगम है, देव भव से तार ।।

 

२७१. श्रद्धा रहित जन है वे, मुझको पा नहीं सकते है ।

संसार चक्र में भ्रमण करते, मुक्ति पा नहीं सकते है ।।

 

२७२.   यह जगत परिपूर्ण मुझसे, जल से बर्फ समान ।

नभ में जेसे वायु स्थित है, वैसे तूँ मान ।।

 

२७३. आदि कल्प से रचता भूत सब, अंत में लय सब होते है ।

त्रिगुणमयी माया से होता, कर्म फल सब होते है ।।

 

२७४. आसक्ति रहित जो भक्त है मेरा, बांध सके न कर्म ।

कई मूढ न मुझको जानते, नहीं समझते धर्म ।।

 

२७५. अज्ञानी जन रिपु समान है, ज्ञानी जन है 'देव' ।

जान मुझे वे मुझको भजते, बुरी न रखे टेव ।।

 

२७६. मेरे नाम का गुण कीर्तन, करते बारम्बार प्रणाम ।

मुझ विराट को पूजते, भजते मेरा नाम ।।

 

 

२७७. श्रोत कर्म यज्ञादि में हूँ, हूँ पितरों का अन्न ।

औषधि,मन्त्र, घृत अग्नि हूँ, और सुन हवन ।।

 

१०

२७८. सम्पूर्ण  जगत का धाता  मैं हूँ, मैं ही पोषण कर्ता ।

कर्मों के फल का दाता हूँ, भक्तों के कष्टों को हरता ।।

 

११

२७९ माता, पिता, पितामह मैं हूँ, हूँ पवित्र ओंकार ।

ऋग , साम और यजुर्वेद हूँ, और हूँ नोंकार ।।

 

१२

२८०. शुभा शुभ को देखने वाला, हूँ सबका मैं स्वामी ।

लेता शरण में भक्त को मेरे, भरत उसी की हामी ।।

 

१३

२८१. सूर्य हूँ तप कर वर्षा करता, सत असत सब मेरे ।

पुण्य से जो स्वर्ग को पाते, क्षीण होने पर फेरे ।।

 

 

१४

२८२ अनन्य भाव से जो है भजते, वे मुझको ही पाते है ।

अन्य देवों को जो पूजे जन, पूर्ण समझ नहीं पाते है ।।

 

१५

२८३. पूजन सब वह मेरा है, उन्हें नहीं कुछ  ज्ञान ।

पुनर्जन्म वे पाते है, नहीं कुछ उनको भान ।।

 

१६

२८४. देव, पितर या भूत कोई हो, पूजे उसी को पाता हूँ ।

मेरा भक्त जो तत्व को जाने, मेरे को ही पाता है ।।

 

 

१७

२८५. पत्र, पुष्प, फल, जल से कोई, पूजन मेरी करता है ।

सुबुद्धि प्रेम से अर्पण कर. ध्यान मेरा वह धरता है ।।

 

१८

२८६. सगुण रूप से प्रकट होकर के, प्रीति सहित मैं खाता हूँ ।

कर्म, हवन व दान, तप सब, कर अर्पण मैं पाता हूँ ।।

 

१९

२८७. कर्म अर्पण कर देने से, होगा बंधनहीन ।

अंत में मुझको पायेगा, होगा मुझमे लीन ।।

 

२०

२८८.  सब भूतों में व्यापक हूँ, सुन अर्जुन सम भाव ।

प्रिय अप्रिय न कोई मेरा, नहीं मुझको कुछ चाव ।।

 

२१

२८९. भक्त जो प्रेम से भजता मुझको, सुन वहां मैं आता हूँ ।

चाहे भला दुराचारी हो, प्रेम उसका मैं पाता हूँ ।।

 

२२

२९०. दृढ़ निश्चय वह पापी मेरा, रोज नाम हे लेता है ।

धर्मात्मा सुन वह हो जाता, भव से नैया खेता है ।।

 

२३

२९१. स्त्री, वैश्य चाहे शूद्र हो, मेरी शरण में जो आते है, ।

कैसे ही पापी क्यों न भला हो, वे मुझको ही पाते है ।।

 

२४

२९२. फिर क्या कहना विप्र, ऋषि का, परम गति को पाते है ।

भक्तजन और पुण्यशिल तो, मुझे बहुत ही भाते है ।।

 

२५

२९३. मनुष्य जन्म यह अति दुर्लभ है, है भजन में सार ।

पता नहीं कब काल दबाये, जीना है दिन चार ।।

 

२६

२९४. अनन्य प्रेम से भज मुझको तूँ, रख श्रद्धा है पूरी ।

चतुर्भुज रूप को मन में लेले, रहे न मुझसे दूरी ।।

 

 

ॐ तत्सदिति “राजविद्दा राज गुप्त योग” नामक नवम अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

दशम अध्याय (१०)

 

२९५. परम प्रभाव एवं रहस्यपूर्ण, वचन तुम्हे सुनाता हूँ ।

परम प्रेमी भक्त तूँ मेरा, दुर्गुण सर्व भुलाता हूँ ।।

 

२९६. मेरी उत्पति लीला को, ऋषि जाने 'देव'

जो जाने अजन्मा मुझ ईश को, भव की नैया खैव ।।

 

२९७. सुख, दुःख, क्षमा, दया आदि, जितने भी उठते भाव ।

अहिंसा, समता, संतोष, तप , सब में मेरे भाव ।।

 

२९८. सप्त महर्षि चार सनकादि, मनु आदि मुझ से पैदा हुए ।

इनसे जगत की सारी प्रजा, मनु आदि सब पैदा हुए ।।

 

२९९. जो जाने इस योग शक्ति को, ध्यान मेरा वह करता है ।

एकी भाव से स्थिर हो कर वह, अंधकार को हरता है

 

३००. मैं ही जगत का कारण हूँ, चेष्टा सब मुझ से करते है ।

श्रद्धा भक्ति से युक्त बुद्धि जन, मुझ प्रभु को भजते है ।।

 

३०१. रहे मन सदा मुझ में ही, भक्ति से गुण गान करें ।

गुण प्रभाव का कथन करे, एकाग्रचित हो ध्यान धरे ।।

 

३०२. निरंतर ध्यान में लगे हुए, और प्रेम में लीन ।

वे मुझे ही पाते है, कभी होते खिन्न ।।

 

३०३. ज्ञान रुपी अंधकार को, कर प्रकाश मै नष्ट करूँ ।

तत्वज्ञान दीपक संजोये, भक्तों के मैं कष्ट हरुँ ।।

 

१०

३०४. परब्रह्म परमेश्वर और, परम पवित्र है आप ।

देवों के हो देव प्रभु, परम सनातन आप ।।

 

११

३०५. नारद, शारद और व्यास सब, गए गुण दिन रात ।

केशव ! यह सब सत्य है, जो कही आपने बात ।।

 

१२

३०६. प्रभुवर ! लीला रूप को, जाने दानव देव ।

है देवों के देव प्रभु, जानो तुम स्वयंमेव ।।

 

१३

३०७. व्याप्त आप में लोक सब, कहे विभूति आप ।

योगेश्वर जानूँ आपको, अमित दीजिये छाप ।।

 

१४

३०८ योगशक्ति, विभूति का, कहो विस्तार अब नाथ ।

अमृतमय सुनूँ  वचन सदा मैं, छोड़ूँ कभी साथ ।।

 

१५

३०९. नहीं अन्त  विस्तार का, सुन बात प्रिया यह पार्थ ।

सबका हूँ मैं आत्मा, कभी छोड़ूँ साथ ।।

 

१६

३१०. आदि, मध्य और अन्त सब, मैं ही हूँ यह जान ।

विष्णु और सूर्य हूँ, सुन खोल कर कान ।।

 

१७

३११ मरीचि नामक वायु मैं हूँ, नक्षत्रों में चन्द्र ।

वेदों में हूँ सामवेद, और देवों में इंद्र ।।

 

१८

३१२. इन्द्रियों में मन मैं हूँ, चेतनता में ज्ञान ।

एकादश रुद्रों में शंकर  हूँ, अष्ठ वसुओं में अग्नि जान ।।

 

१९

३१३, यक्ष रिपुओं में कुबेर हूँ, जो है धन का स्वामी ।

सुमेरु, पर्वत शिखरों में, सुन  पार्थ में नामी ।।

 

२०

३१४. पुरोहितों में वृहस्पति हूँ, सेना नायक  कार्तिक जान ।

जलाशयों में सागर हूँ मैं, महर्षियों में भृगु को जान ।।

 

२१

३१५. ओंकार हूँ वचनो में, यज्ञों में जप यज्ञ ।

पहाड़ो में स्थिर हिमालय, सुन सुन मैं सर्वज्ञ ।।

 

२२

३१६. पेड़ों में पीपल हूँ, देवर्षि नारद हूँ मैं ।

चित्ररथ हूँ गायकों में, सिद्धों में कपिल हूँ मैं ।।

 

२३

३१७. हाथियों में ऐरावत हूँ, अश्वों में उच्चेः श्रव घोड़ा ।

मनुष्यों में राजा मैं हूँ, शस्त्रों में वज्र हूँ चौड़ा ।।

 

२४

३१८. गौओं में मैं कामधेनु हूँ, सर्पों में वासुकि नाग ।

संतान हेतु कामदेव हूँ, नागों में हूँ शेषनाग ।।

 

२५

३१९. जलचरों में वरुण देवता, शाषकों में यमराज ।

अर्यमा नामक पित्रेश्वर हूँ, पशुओं में मृगराज ।।

 

२६

३२०. दैत्यों में प्रहलाद भक्त हूँ, गरुड़ पक्षियों में जान ।

गिनती कर्ता में समय हूँ, पवित्र कर्ता वायु मान ।।

 

२७

३२१. सरिताओं में भागीरथी, शस्त्र धारियों में हूँ राम ।

पेय पदार्थ में दूध हूँ, और फलों में आम ।।

 

२८

३२२. मछलियों में मगरमच्छ हूँ, सबका आदि अन्त ।

तत्व से मुझे जानते, सुन वे सच्चे संत ।।

 

२९

३२३. विद्दाओं में ब्रह्मविद्दा, वादो में वाद ।

अक्षरों में  अकार जान तूँ , भक्ति करे मम पाद ।।

 

३०

३२४ समासों में द्धंद्ध समास मैं, सुन मैं महाकाल ।

सबका धारण पोषण करता, है यह सच्चा हाल ।।

 

३१

३२५. उत्पति का कारण हूँ मैं,और मृत्यु तूँ मुझको जान ।

वाक, स्मृति, मेधा, क्षमा हूँ, और धृतिभि मुझको मान ।।

 

३२

३२६. श्रुतियों में वृहत्साम हूँ, छंदों में गायत्री छंद ।

महीनों में मार्गशीर्ष हूँ, दमनकर्ताओं का दंड ।।

 

३३

३२७. ऋतुओं में बसंत ऋतु हूँ, सात्विकों का सात्विक भाव ।

पांडवों में मैं तूँ हूँ, पार लगाऊ नाव ।।

 

३४

३२८. कवियों में शुक्राचार्य हूँ, और भावों में मौन ।

ज्ञानियों का तत्वज्ञान हूँ, दुःखी कभी वह होन ।।

 

३५

३२९. नहीं रहित है मुझसे कोई, कहा संक्षिप्त, विस्तार ।

जो तत्व से मुझको जाने, देता हूँ मैं तार ।।

 

३६

३३०. शक्तियुक्त सब वस्तुए, मेरे तेज से तूँ हुई जान ।

क्या प्रयोजन बहु जाने तूँ, जगत अंश से धारण मान ।।

 

 

ॐ तत्सदिति    "विभूति योग" नामक दशम अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

 

एकादश अध्याय (११)

 

३३१. परम गोपनीय वचन प्रभु ! नष्ट हुआ अज्ञान ।

उत्पति  प्रलय का हाल सुना, लिया प्रभाव है जान ।।

 

 

३३२. जैसा अपने को कहते हो प्रभु ! वैसे ही हो आप ।

किन्तु महारूप अब  प्रत्यक्ष दिखा कर, अंकित करदो छाप ।।

 

३३३. हजारो मेरे रूप ये नाना, ले पार्थ अब देख ।

अदिति, पुत्र आठ वसु, एकादश  रुद्रों को देख ।।

 

३३४. चराचर सहित सम्पूर्ण जगत, कई आश्चर्यमय   रूप ।

दिव्या चक्षु मैं तुझको देता, फिर देख रूप अनूप ।।

 

३३५. संजय बोले राजन प्रभु ने, दिखाया स्वरूप विराट ।

अनेक मुख और नैत्र थे, हाथों में शस्त्रों का ठाठ ।।

 

३३६. दिव्य माला और शस्त्र थे, दिव्य गंध का लेप ।

सीमा रहित वह परम देव थे, रूप अनोखा तेज ।।

 

३३७. मार्तण्ड हजारो नभ में जैसे, उदय हुए हों सब ही साथ ।

वह भी वैसा शायद  ही हो, जैसा रूप दिखाया नाथ ।।

 

३३८. श्री कृष्ण की देह में, जग को देखा पार्थ ।

आश्चर्य से युक्त वह, बोला  वचन हो आर्त ।।

 

३३९. हो आश्चर्य से युक्त वह, कर श्रद्धा से प्रणाम ।

जोड़  हाथ  अर्जुन बोला, तब वाणी मधुर ललाम ।।

 

१०

३४०. "देव" आपकी देह में, सभी देवों का वास ।

ऋषि, मुनि और ब्रह्मा देखुँ, महादेव को खास ।।

 

११

३४१. अनेक मुख नेत्र है, अनन्त रूप है नाथ ।

आदि, अन्त और मध्य नहीं, है सहस्त्रो हाथ ।।

 

१२

३४२. शंख, चक्र, गदा  पद्म है, अति प्रकाश है तेज ।

सूर्य सम तेज पुञ्ज है, और नाग शेष की सेज ।।

 

१३

३४३. पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर हो,  परम अक्षर हो आप ।

आश्रय रक्षक आप है, आप सनातन बाप ।।

 

१४

३४४. सूरज, चन्द्र प्रभु नेत्र है, परम आप बलवान ।

तेज अग्नि रूप मुख है, सर्व गुण धनवान ।।

 

१५

३४५.  देव सब है आप में, करे सभी गुणगान ।

महर्षि , सिद्ध समुदाय सभी, नहीं पाते वो जान ।।

 

१६

३४६. एकादश रूद्र आठ वसु, रिपु गन्धर्व समुदाय ।

विस्मित से सब देखते, सब नहीं जानी जाय ।।

 

१७

३४७. बहु कर, पाद , देख मुँह को, व्याकुल है सब लोक ।

मैं भी व्याकुल हूँ प्रभु अब, सुनो नाथ त्रिलोक ।।

 

१८

३४८. देखूं मैं विकराल मुँह में, पांडव कौरव जाते हैं ।

जैसे दौड़ नदी नाले सब,  समा सागर में जाते हैं ।।

 

१९

३४९. है देवों में श्रेष्ठतम, प्रणाम मेरा स्वीकार करो ।

प्रसन्न हो कर   प्रभुवर मेरा, सारा भय अब शीघ्र हरो ।।

 

२०

३५०. योद्धा तो मरेंगे ही, भले ही कर युद्ध ।

अतः पार्थ खड़ा अब  हो जा,  मन को करले शुद्ध ।।

 

२१

३५१. तूँ तो केवल निमित मात्र है,  हैं सब मेरे   मारे  हुए ।

विजय तेरी होगी सुनले, पूर्ण मनोरथ सारे हुए ।।

 

२२

३५२. है ! अनन्त सामर्थ्य युक्त भगवन, आपको बारम्बार प्रणाम ।

पूर्णब्रह्म हो आप सनातन, छाये हो सर्वत्र ललाम ।।

 

२३

३५३. वाही चतुर्भुज दर्शन दे, जिससे हो जावे भय चूर ।

फिर खड़ा हो युद्ध करूँ, बनू परम मैं शूर ।।

 

२४

३५४. सुन अर्जुन यह विराट रूप, केवल तेने देखा है ।

इससे पूर्व किसने देखा हो, नहीं कही यह लेखा है ।।

 

२५

३५५. ले फिर दिखाऊँ रूप चतुर्भुज, हो जा अब तूँ शांत ।

देखा पार्थ  चतुर्भुज, मिट गया सब ही क्लांत ।।

 

२६

३५६. अर्जुन ! जो कोई मेरा भक्त है, लेता हूँ मैं तार ।

प्राप्त होता अन्त में, मुझको, कभी होती हार ।।

 

 

ॐ तत्सदिति    "विश्र्व रूप दर्शन योग"  नामक एकादश अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

द्धादशो अध्याय (१२)

३५७. सगुण निर्गुण भक्त में, कौन श्रेष्ठ है श्याम ।

दोनों श्रेष्ठ है पार्थ सुन, पाये  परम धाम ।।

 

३५८. सगुण निर्गुण से सहज है, सहज आनन्द अपार ।

निर्गुण उतना सहज नहीं, है असी की धार ।।

 

३५९.  परायण हो जा पार्थ मेरे, या निभाले योग ।

अन्त में मुझको पायेगा, कट जायेगा रोग ।।

 

३६०. द्धेष रहित और त्यागी है जो, वही शांति को पाता है ।

ऐसा भक्त मुझको है प्यारा, सो कभी नहीं घबराता है ।।

 

३६१. मित्र शत्रु जिसके सम है, सम है दुःख और सुख ।

गर्मी या सर्दी भले हो, नहीं समझता दुःख ।।

 

३६२. निंदा स्तुति में   जो सम है, स्थिर बुद्धि कहलाता है ।

शरीर निर्वाह कैसे भी करता, मन को यूँ बहलाता है ।।

 

३६३. श्रद्धा युक्त हुवा जो जन है, धर्मं मय अमृत पीता है ।

ऐसा भक्त मुझको अति प्यारा, सुख से सदा जीता है ।।

 

ॐ तत्सदिति “भक्ति योग” नामक बारहवाँ अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

त्रयोदश अध्याय (१३)

३६४. यह  शरीर  क्षेत्र है पार्थ सुन, जाने जो क्षेत्रज्ञ ।

विकार रहित प्रकृति और पुरुष का, सबका मैं क्षेत्रज्ञ ।।

 

३६५. पंच महाभूत पंच तन्मात्रा, दसों इन्द्रियां रहती है ।

मन, बुद्धि, चित और, अहंकार की धारा बहती है ।।

 

३६६. इन सबसे परे हो कर, सम भाव से जो रहता है ।

भाव नहीं भोगों का रखे, सुख सदा ही बहता है ।।

 

३६७. सर्वत्र वही एक ब्रह्म है, जो कोई लेवे जान ।

सर्व बंध से मुक्त हो, करता अमृत पान ।।

 

३६८. जो तत्व को जान गया, जन्मे ना वह मरता है ।

ब्रह्म में लीन वह हो जाता, मोज सदा वह करता है ।।

 

३६९.कुछ ह्रदय में देख प्रभु को, ध्यान उसी का धरते है ।

कुछ योग साधन  अपना कर, अज्ञान अपना हरते है ।।

 

३७०. कुछ तत्व वेता से सुन सुन कर, वैसा साधन करते है ।

ऐसे लोग भी साधन करते, भव सागर से तिरते है ।।

 

३७१. निर्लिप्त है यह आत्मा, जैसे है आकाश ।

सूर्य सम यह आत्मा, सदा करे प्रकाश ।।

 

ॐ तत्सदिति   "क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग" नामक तेरहवाँ अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

 

चतुर्दशो अध्याय (१४)

३७२. उतम ज्ञान कहूँगा अर्जुन, सुन हो जाये पार ।

होते पार कई इस भव से, है यही एक सार ।।

 

३७३. ऐसे जन फिर पैदा नहीं होते, जब सृष्टि रचना होती है ।

नहीं होते व्याकुल प्रलय में, साडी सृष्टि जब सोती है ।।

 

३७४. सम्पूर्ण भूतों की योनि है, यह त्रिगुण मयी माया ।

चेतन रुपी बीज बोता हूँ, जिससे चलती सृष्टि काया ।।

 

३७५. त्रिगुण मयी माया माता है, जिससे सब यहाँ आते है ।

पिता उन सबका सुन मैं हूँ, गुण मेरे ही गाते है ।।

 

३७६. सत, रज और तम त्रिगुण, जीवात्मा को देह में बांधे है ।

सत्व निर्मित  है अतः वह,  ज्ञान प्रकाश को बांधे है ।।

 

३७७. रजोगुण से कामना आये, आसक्ति और बढ़ाता है ।

तमोगुण से इस देह में, अंधकार बढ़ जाता है ।।

 

३७८. सत्व सुख है रजो कर्म है, तमो से निद्रा प्रमाद ।

तमो ज्ञान को ढ़क लेता है, केवल आलस्य प्रमाद ।।

 

३७९. ज्ञान सत्व से, लोभ रजो से, तमो से आता अज्ञान ।

कटे जन्म मृत्यु का चक्कर, चाहे जग ले छान ।।

 

३८०. सत्व स्वर्ग में, रजो लोक में, तमो ले जाये नर्क ।

जो रहे तीनो से परे, वो पाये मुझे नहीं फर्क ।।

 

१०

३८१. किन उपायों से मनुष्य, पर तीनो से होता है ।

भगवन कृपा कर यह बताये, कैसे बीज ज्ञान का बोता है ।।

 

११

३८२.  किसी गुण की प्रवति पर, लिप्त जो नहीं होता है ।

सुख दुःख को जो सम  माने, वही बीज ज्ञान के बोता है ।।

 

१२

३८३. मिटटी स्वर्ण पाहन में, रखे सदा सम भाव ।

ऐसा पुरुष ही धन्य है, लगे पार तब नाव ।।

 

१३

३८४. मान अपमान में रहे सदा सम, नहीं मित्र और वेरी ।

निश्चय मुझको वह पा जाता, किंचित लगे देरी ।।

 

 

  तत्सदिति  "गुणत्रय  विभाग योग" नामक चौदहवाँ अध्याय  समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

 

पञ्चदशो अध्याय (१५)

 

३८६. ब्रह्म रूप शाखा है जिनकी, परमेश्वर है मूल ।

        संसार वृक्ष पीपल सम, वेद पते नहीं भूल ।।

 

३८७ . विषय रुपी कोंपले, शाखाएं हैं योनि रूप ।

        वासना रुपी है जड़े, ऊपर निचे अनूप ।।

 

३८८ . नहीं इसका आदि है, ना मध्य ना अन्त ।

         समझे इसे वैराग्य से, वे ही धन्य है संत ।।

 

३८९. इस देह में पार्थ सुन, जीव मेरा ही अंश ।

        वे भी सब मेरे ही हैं, जो इसके है वंश ।।

 

३९०. योगी जाने आत्मा, समझे अपना वेश ।

        अज्ञानी नहीं जान सके, ढूंढे देश विदेश ।।

 

३९१. जो तेज है सूर्य में,  चाँद का जान ।

        और अग्नि का तेज भी, मेरा ही है मान ।।

 

३९२. जीवात्मा अविनाशी है, शेष सभी का होता नाश ।

        नाश के माने रूप को बदले, समझ सके कोई काश ।।

 

३९३. ये गोपनीय वचन कहे, समझे तो है सार ।

        भव से होवे पार  सुन, आये कुछ नहीं भार ।।

 

ॐ तत्सदिति   "पुरुषोतम योग" नामक पन्द्रहवाँ   अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

 

षोडशो अध्याय (१६)

 

३९४. निर्भय जो रहे सदा, रह पवित्र कर दान ।

        मन  वाणी से सदा सरल, वही   है पार्थ महान ।।

 

३९५. क्षमा, धैर्य जिसमे रहे, नहीं वेर का भाव ।

        लक्षण देवी सम्पदा, पार उतरती नाव ।।

 

३९६.  आसुरी सम्पदा लक्षण हैं, काम, क्रोध अभिमान ।

         नहीं मधुरता वाणी में, है यही अज्ञान ।।

 

३९७. देवी सम्पदा तारती, है आसुरी बंध ।

       आसुरी माया है सम्पदा, वहां अंध ही अंध ।।

 

३९८. खाओ पीओ मोज करो, नहीं जगत में ईश ।

       कहते आसुरी वाक्य ये, गई बुद्धि है घिस ।।

 

३९९. रहते अंधे लोभ में, नहीं समझ कुछ पाय ।

        यह लूँ और वह भी ले लूँ, दिन रेन करे है हाय ।।

 

४००. उसे मारा अब इसको मारूँ, नहीं मुझ सा बलवान ।

        सुखी बड़ा परिवार है मेरा, नहीं मुझ सा  धनवान ।।

 

४०१. भर्मित चित अज्ञानी जन, फंसे मोह के जाल ।

        ऐसों को सुन पार्थः तूँ, दूँ नर्क में डाल ।।

 

४०२. काम, क्रोध व लोभ ये, तीन नर्क के द्धार ।

        तीनों को जो त्याग दे, लग जाता वह पार ।।

 

 

ॐ तत्सदिति "देवासुर संपद विभाग योग" नामक सोलहवां अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

 

सप्तदशो अध्याय (१७)

 

४०३. शास्त्र विधि को त्याग कर, देवदिक पूजन करे ।

        उनकी स्थिति कहो कृष्ण अब, सत्व, रज या तम अरे ।।

 

४०४. सुन पार्थ सभी की श्रद्धा, अनुरूप अंतः होती है । 

       श्रद्धा विहीन कुछ पाये नहीं, तत्व बुद्धि सब खोती है ।।

 

४०५. सात्विक पूजे देव को, राजस पूजे यक्ष ।

        तामस पूजे प्रेत को, नहीं बुद्धि में दक्ष ।।

 

४०६. घोर तप में प्रवृत होते, और जो दम्भ करते है ।

        पा नहीं सकते  कभी भी  मुझको, बुद्धि अपनी हरते है ।।

 

४०७. तीन प्रकार के भोज है, तीन प्रकार के दान ।

        इनके भेद सब पार्थ तूँ, सुन खोल कर कान ।।

 

४०८. आयु, बल, व बुद्धि बढ़ाये, ऐसा भोजन जो करता है ।

        सात्विक कहलाता है, दया उर में वह भरता है ।।

 

४०९. कड़ुए, खट्टे और मसाले, राजस जन सब खाते है ।

        अधपका बासी रहित, तामस जन सब पते है ।।

 

४१०. तीन प्रकार के यज्ञ है, तीन प्रकार के तप ।

        शास्त्र विधि ही उतम है, अन्य सभी है गप ।।

 

४११. देश,काल और पात्र देख, दिया जाय जो दान ।

       कर्तव्य समझ जो बरते ऐसा, वह गौरव की खान ।।

 

१०

४१२. ऊपर लक्षण सात्विक का, अब तूँ राजस जान ।

        क्लेश युक्त व स्वार्थ वस हो, करे नहीं वह दान ।।

 

११

४१३. देश, काल व पात्र न देखे, करे नहीं सत्कार ।

       ऐसा तामस दान है, कहूँ यह ललकार ।।

 

१२

४१४. ॐ तत्सत सुन पार्थ तूँ, आनन्द ब्रह्म का नाम ।

        ॐ से सब शुरू करे, दान यज्ञ का काम ।।

 

१३

४१५. सच्चिदानन्द पूर्ण ब्रह्म हूँ, श्रद्धा से जाना जाऊँ ।

        बिना श्रद्धा का हवन, दान, तप, नहीं कभी मैं पाऊँ ।।

 

१४

४१६. असत कर्म से लाभ नहीं, इह लोक परलोक ।

         सत कर्म सभी तूँ मानले, नहीं रहेगा शोक ।।

 

ॐ तत्सदिति  "श्रद्धात्रय विभाग योग" नामक सत्रहवाँ अध्याय समाप्त

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति

 

 

अष्टादशो अध्याय (१८)

 

४१७. है महाबाहो, है वासुदेव, कहें तत्व त्याग सन्यास ।

        सुन पार्थ ! मैं कहूँ अन्त में, इसका तत्व जो खास ।।

 

४१८. कई काम्य कर्म की, कई कहते फल त्याग ।

       कई कहते सब दोष युक्त, समझे वह महाभाग ।।

 

४१९. मेरे निश्चय को कहता हूँ, सुन लगाले ध्यान ।

        त्याग तीन है - सत तथा, राजस , तामस जान  ।।

 

४२०. यज्ञ, दान और तपस्या, मत त्यागो ये कर्म ।

       करते हैं पवित्र  ये, समझो अब यह मर्म ।।

 

४२१. आसक्ति फल की त्याग कर, करो श्रेष्ठ सब कर्म ।

       मोह, आलस्य  दूर रह, न त्यागो कभी हो गर्म ।।

 

४२२.  कर्म सभी दुःख रूप हैं, उचित नहीं यह कहना । 

         जल में कमल जैसे रहता है, वैसे ही तुम रहना ।।

 

४२३. कर्मों के फल को जो त्यागे, त्यागी वही कहलाता है ।

        रहे सदा संतुष्ट उसी में, धर्म सदा लहराता है ।।

 

४२४. नहीं किसी से द्धेष जिसे, नहीं किसी से मोह ।

        पाने पर हर्षे नहीं, दुःखी नहो बिछोह ।।

 

 

४२५.' मैं कर्ता हूँ ' जिस पुरुष को, नहीं ऐसा है भाव ।

         नहीं बंधता वह पाप से, नहीं उसे कुछ चाव ।।

 

१०

४२६. ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय ये तीनो, है प्रेरक कर्म ।

       कर्ता, करण व क्रिया ये तीनो, कर्म संग्रह मर्म ।।

 

११

४२७. सब में एक ब्रह्म को जाने, है वह सात्विक ज्ञान ।

        सम्पूर्ण भूतों में भिन्न भाव है, उसको राजस जान ।।

 

१२

४२८. देहासक्ति तत्व रहित जो, ऐसा तामस ज्ञान ।

        शास्त्र विरुद्ध जो कर्म करे, नहीं अपना कुछ भान ।।

 

१३

४२९. कर्तापन अभिमान से, करे वह सात्विक कर्म ।

        परिश्रम जिसमे बहुत है, वह है राजस कर्म ।।

 

१४

४३०. विचार नहीं जिसमे कुछ हो, हानि, हिंसा परिणाम ।

         मोह, मतान्ध हो कर्म करे, उसे ही तामस जान ।। 

१५

४३१. कर्ता, बुद्धि, धारणा, सबके   त्रिगुण रूप । 

        सुख का भी यही हाल है, है विचित्र अनूप ।।

 

१६

४३२. अंतःकरण की शुद्धि हो, नहीं लोभ अज्ञान ।

        वहीँ पुरुष यहाँ धन्य है, सुख से जाये प्राण ।।

 

१६

४३३. पर हित कारन कष्ट सहे, रहे क्षमा का भाव ।

        सहज लक्षण ये विप्र के, हो ज्ञान का चाव ।।

 

१७

४३४. धैर्यवान और वीर हो, देता और जो दान ।

        क्षत्रिय लक्षण ये कहे, नहीं वह भूखा मान ।।

 

१८

४३५. गो पालन और कृषि करना, तथा सत्य व्यापार ।

        ये लक्षण है वैश्य, समझे जो है सार ।।

 

१९

४३६. सेवारत जो रहे सदा, ये शूद्र के कर्म ।

        अपने अपने कर्म के, समझो अब यह मर्म ।।

 

२०

४३७. अति गोपनीय ज्ञान कहा, करले अब तूँ ध्यान ।

        मुख्य बात यही पार्थ है, हो जाये यदि ज्ञान ।।

 

२१

४३८. बोला पार्थ तब शीश झुका, हुआ नष्ट अब मोह ।

        कृष्ण आपकी माया को, जाना हूँ, ओह ! ।।

 

२२

४३९. संजय बोले सुन राजन, जहाँ कृष्ण है पास ।

        वहाँ विजय ही विजय रहे, नहीं पराजय आस ।।

 

२३

४४०. गीत गीता सुधा रास, करो सज्जन सब पान ।

       सार है चारों वेद का, तत्व उपनिषद् जान ।।

 

२४

४४१. विक्रम संवत साल यह, दो हजार चौब्बीस ।

        मार्गशीर्ष   शुक्ल नोमी है, दिन रवि शुभ ईश ।।

 

२५

४४२. छन्द चालीस और चारसो, सरल गीता यह सार ।

        गाने में सुन्दर लगे, सार वेद, नहीं भार ।।

 

२६

४४३. दिसम्बर दिनांक दस है, उन्नीसो सतसठ साल ।

        सरल सार यह पूर्ण हुआ, वय पञ्च तीस साल ।।    

 

ॐ तत्सदिति    "मोक्ष सन्यास योग” नामक अठारवाँ अध्याय समाप्त

 

सरल गीता सार पूर्ण

 

हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत

ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति