प्रथम अध्याय (१)
१
धृतराष्ट्र ने एक दिन, पूछी संजय से बात ।
धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र में, पांडव कौरव साथ ।।
२
पांडव व मेरे पुत्रो ने, क्या किया इच्छा से जाय ।
देख सकूँ ना अँधा हूं मैं, अतः दो समजाय ।।
३
संजय ! बोले राजन !, दुर्योधन देखी पांडव सेना ।
द्रोणाचार्य पास जा बोला, आचार्य अब सुन लेना ।।
४
श्रेष्ठ ! देखिये व्यूह रचना, धृष्टद्दुम्न द्वारा पूर्ण हुई ।
भीम अर्जुन से वीर है, इसमे, युद्ध की आशा पूर्ण हुई ।।
५
राजा द्रुपद, सात्यकि, देखो और विराट ।
कुंतिभोज , पुरूजीत शैव्य, काशिराज का ठाट ।।
६
उतमौजा युधामन्यु, अभिमन्यु सा वीर ।
चेकितान धृष्टकेतु, पुत्र द्रोपदी वीर ।।
७
आचार्य हमारे पक्ष के भी सब सुन लीजिये नाम ।
प्रथम तो आप है, फिर भीष्म कर्ण के नाम ।।
८
कृपाचार्य और अश्वथामा, और वीर विकर्ण ।
भूरिश्रवा से वीर है, लिये मरण का प्रण ।।
९
जहाँ भीष्म से वीर है, वहां क्या करेगा भीम ।
विजय हमारी ही होगी, देऊं न सुई भर सीम ।।
१०
भीष्म की ऱक्षा करना ही, प्रथम हमारा कार्य ।
हर्षित हो तब शंख बजाया, हर्षित हुए आचार्य ।।
११
उस काल बजने लगे शंख नगारे ढोल ।
भयङ्कर फिर शब्द हुआ, दे कानो को खोल ।।
१२
बैठे हुए थे श्री कृष्ण अर्जुन, सफ़ेद घोड़ो का रथ था ।
दोनो ने भी संख बजाये, वह समर भूमि का पथ था ।।
१३
श्री कृष्ण ने पाञ्चजन्य बजाया, पार्थ ने देवदत ।
बजाया भीम ने पौण्ड्रनामक, शब्द था अति वेगवत ।।
१४
अनन्तविजय युधिष्ठर ने, बजाया करके घोष ।
सहजदेव ने मणिपुष्पक, नकुल ने सुघोष ।।
१५
काशिराज महारथी शिखण्डी, धृष्टध्युमन् और विराट ।
द्रुपद द्रोपदी पांच पुत्र, और अभिमन्यु का ठाट ।।
१६
शब्द पूरित है नभ और अवनी, कौरव ह्रदय हे चूर ।
पार्थ बोला श्री कृष्ण से, कौन कौन है शूर ।।
१७
अच्युत ! चलिये लेकर रथ को, सेनाओं के बीच ।
कौन कौन है उस और जहाँ दुर्योधन हे नीच ।।
१८
रथ को ले चले कृष्ण तब, जहाँ थे आचार्य ।
पितामह आदि स्वजन देख, हे पार्थ को आश्चर्य ।।
१९
देखे मामा और थे भाई, पुत्र पोत्र नहीं पराये ।
मित्र सुहृदय जन है ये सबही, मन में करूणा आवे ।
२०
शोकमग्न हो अर्जुन बोला सुनिये कृष्ण भगवान ।
आचार्य पितामह को मारू, नहीं दिखती शान ।।
२१
हुए शिथिल अब अंग मेरे, मुंह गया है सूख ।
देख स्वजन युद्धभूमि में, युद्ध का बदला रूख ।।
२२
जाता है गाण्डीव हाथ से, त्वचा मेरी जलती ।
मन भ्रमित हो रहा प्रभुवर, बुद्धि मुझको खलती ।।
२३
कृष्ण ! कैसे खड़ा रहू मैं, नहीं यहाँ कल्याण ।
दिखाते हैं सब विपरीत लक्षण, चाहूँ पाना त्राण ।।
२४
नहीं चाहता विजय, कृष्ण ! मैं, ना राज्य ना सुख ।
क्या प्रयोजन? जीवन, भोग, से देते हैं ये दुःख ।।
२५
जिनसे राज्य की आशा हमको, खड़े मोह को छोड़ ।
स्वजन मार राज्य करू मैं, है व्यर्थ ये दौड़ ।।
२६
गुरुजन, दाऊ, ताउ, मामा, पुत्र, पौत्र सब लोग ।
इन साले ससूर को मारकर, नहीं चाहिये भोग ।।
२७
पृथ्वी की तो बात ही क्या, चाहे राज्य मिले त्रिलोक ।
तो भी मार न सकूँ मैं, इनका होता है अति शोक ।।
२८
क्या मिलेगा मारूं इनको, जरा सोचिये आप ।
कौरवादि मारने से प्रभुवर, हमें लगेगा पाप ।।
२९
हो लोभ से भ्रष्ट कृष्ण ! जो करते कुल का नाश ।
धिक्कार है ऐसे सुख को, जहाँ धर्म नहीं है पास ।।
३०
जानबूझ कर करे क्यों ऐसा, नहीं ये मेरा धर्म ।
जन दिन पाप से बचने का, क्यों न ढूंढे मर्म ।।
३१
हो गया यदि युद्ध में, सारे कुल का ह्वाश ।
इससे तो हो जायगा, सारे कुल का नाश ।।
३२
धर्मनाश से हम सबको, लेगा दबा वह पाप ।
होंगी स्त्रियॉं कुल दूषित, फिर वर्णशंकर श्राप ।।
३३
तब गिरेंगे नर्क में, पितरो सहित हम सबही ।
धर्म सनातन जाति धर्म, नष्ट होंगे तबही ।।
३४
अनंत काल तक नर्क में, पड़े रहेंगे श्याम ।
शोक कि बुद्धि होते हुए भी, नष्ट कूल अभिराम ।।
३५
कौरव मारे यदि मुझे तो, है इसमें कल्याण ।
कहे वचन ये पार्थ ने, फेंक दिया है बाण ।।
३६
पार्थ रथ में बैठ गया, मन में था अति खेद ।
शोक, सन्तप्त, उद्दिग्न था, जैसे पड़ा हो कैद ।।
ॐ तत्सदिति “अर्जुन विषाद योग” नामक प्रथम अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
ॐ
द्धितीय अध्याय (२)
१
३७. आंसू नेत्रों व्याकुलता, शोक सन्तप्त मन खेद ।
जनार्दन बोले पार्थ से, सार जो चारो वेद ।।
२
३८. विषम स्थल में पार्थ तुम्हे, आश्चर्य हुआ अज्ञान ।
आचरण श्रेष्ठ का, कीर्ति स्वर्ग न ज्ञान ।।
३
३९. यह कायरता त्याग कर, हो खड़ा कर युद्ध ।
दुर्बलता को छोडदे, मन को करले शुद्ध ।।
४
४०. पितामह व आचार्य को, कैसे मारू नाथ ।
वे दोनों पूज्य हैं, नहीं चलेगा हाथ ।।
५
४१. गुरुजनो को कैसे मारू, चाहे मांगू भिक्षा ।
बीते त्यागी, जीवन मेरा, ऐसी देदो शिक्षा ।।
६
४२. रुधिर से रंगे हुए, व्यर्थ अर्थ व काम ।
गुरुजनो की हत्या से, मिले नर्क का धाम ।।
७
४३. क्या कर्तव्य अब श्रेष्ठ है ना कुछ हमको होंश ।
नहीं जानते जीते कौन व्यर्थ हमारा जोश ।।
८
४४. कायरता है मोह जनित, दो बता राह कल्याण ।
शिष्य आपका हूँ जनार्दन, सुन पाऊँ में त्राण ।।
९
४५. भले ही मिले राज्य सम्पदा, मिट न सकेगा शोक ।
ऐसा न हो कि बिगड़े प्रभुवर, इह लोक परलोक ।।
१०
४६. निद्राजित पार्थ तब, बोला शोक की वाणी ।
योगीराज भयातुर हूँ, बोला जोड़कर पाणी ।।
११
४७. युद्ध ना करूँगा यह कह कर,हो गया वह मोन ।
तब हंस कर बोले कृष्णजी, पथ दुःखी अब होन ।।
१२
४८. नहीं वचन ये पंडितो के, व्यर्थ तुम्हारा मोह, ।
क्या गम मरे या मर जायेंगे, पड़े भ्रम में तुम ओह ।।
१३
४९. नहीं ऐसा तुम, हम यहाँ, थे नहीं किस काल ।
और आगे भी सदा रहेंगे, है यह सच्चा हाल ।।
१४
५०. जीवात्मा की इस देह में, होती अवस्था तीन ।
कुमार, युवा व वृद्ध सम, अन्य देह धर लीन ।।
१५
५१. इन्द्रिय सुख अनित्य है, है व्यर्थ सब भोग ।
सुख दुःख को सम जो मने, प्पटे मोक्ष वे लोग ।।
१६
५२. अस्तित्व नहीं असत वस्तु का, सत का नहीं अभाव ।
इनको जाने तत्व से, यही ज्ञानी स्वभाव ।।
१७
५३. जिससे व्याप्त सारा जग है, होता कभी ना नाश ।
नाश, अविनाशी, नहीं संभव है, समझ पाओ तुम काश ।।
१८
५४. नाशवान यह देह पार्थ है, हो खड़ा कर युद्ध ।
राग मोह अब छोड़ दे, मन को करले शुद्ध ।।
१९
५५. अजर अमर यह आत्मा मारे यह ना मरता है ।
जो न समझे इस तत्व को, व्यर्थ प्रलाप वह करता है ।।
२०
५६. जन्मता है न मरता है , शाश्वत व पुरातन है ।
होकर के नहीं होने वाला,केवल नाश होता तन है ।।
२१
५७. है ! अर्जुन जो आत्मा का, माने होता न नाश ।
फिर कौन किसको मारे, समझो तत्व यह खास ।।
२२
५८. वस्त्र पुराना त्याग कर, पहिना नया है सुख ।
जीवात्मा बदले को, क्यों होता है दुःख ।।
२३
५९. काट सके न शस्त्र इसे, जला सके न आग ।
गला न सके जल इसे, समझ अरे अब जाग ।।
२४
६०. सुखा सके न वायु इसे, यह आत्मा अच्छेद्द ।
अदाह्य, अक्लेद्द, अशोष्य है, और है अभेद्द ।।
२५
६१. सर्वव्यापक निसंदेह सदा, अविचल और सनातन है ।
अचिन्त्य, अव्यक्त और अविषय, रूप बदलता केवल तन है ।।
२६
६२. जन्म मरण माने फिर भी तूँ, कर कुछ मत तूँ शोक ।
जन्मा है वह जायगा, मान कलेजा ठोक ।।
२७
६३. विदेह जन्म से पूर्व थे, और मृत्यु के बाद ।
मध्य में जाने देह है, है यह सच्चा वाद ।।
२८
६४. देखे, कहे और सुने, आश्चर्य से कोई वीर ।
पार्थ इसे पहचान ले, लगे कलेजे तीर ।।
२९
६५. देख सुन कर भी, जान न पाये भेद ।
चक्कर कहते रहते है, रहे पड़े वो केद ।।
३०
६६. सदा अवध्य है आत्मा, मार सके न कोय ।
पार्थ व्यर्थ है शोक तेरा होनी होय सो होय ।।
३१
६७. भय रखता सखा यदि तूँ, नहीं यह नहीं यह तेरा धर्म ।
युद्ध करना ही धर्म तेरा ले समझ यह मर्म ।।
३२
६८. क्षत्रिय धर्म को समझ करे जो, कर्तव्य अपना सारा ।
धन्य है वह वीर ही खुले स्वर्ग का द्धार ।।
३३
६९. इस धर्म युक्त संग्राम में, नहीं खींचे यदि चाप ।
खोये स्वधर्म और कीर्ति को, अवश्य लगेगा पाप ।।
३४
७०. कथन करेंगे अपकीर्ति का, बहु काल बहु लोग ।
माननीय अतिबुरी, अधिक मरण के योग ।।
३५
७१. महारथी कहेंगे तुम्हे, पार्थ, युद्ध उपराम ।
व्यर्थ है यह तुच्छता, करे तुम्हे बदनाम ।।
३६
७२. निंदा करेंगे वैरी जन, होगा मन में दुःख ।
न कहने के वचन कहेंगे, कहाँ रहेगा सुख ।।
३७
७३. विजय यदि हुई पार्थ तुम्हारी, मिले यहाँ सुख भोग ।
मारे गये यदि युद्ध में, तो सुख स्वर्ग का योग ।।
३८
७४. युद्ध करना ही श्रेष्ठ है, हो यह सुन्दर कार्य ।
संशय सारा त्याग दे, उठ खड़ा हो आर्य ।।
३९
७५. नहीं इच्छा स्वर्ग राज्य की, सुख दुख समझ समान ।
हानि लाभ सम समझ
कर, खिंचले तीर कमान ।।
४०
७६. युद्ध करने से पार्थ तुम्हे, नहीं लगेगा पाप ।
निश्चय दृड़ करले मन में, और खिंचले चाप ।।
४१
७७. कहा सब यह सब बुद्धि हित, यह ज्ञान का योग ।
कहूँ आगे अब पार्थ मैं, निष्काम कर्म का योग ।।
४२
७८. उसके पालन से होगा तेरे, कर्म बन्ध का नाश ।
जन्म मृत्यु भय से तारे, हे इसका फल खास ।।
४३
७९. इस कल्याण मय मार्ग की, निश्चय बुद्धि एक ।
अज्ञानियों की बुद्धि में, होते भेद अनेक ।।
४४
८०. केवल फल की इच्छा वाले, मने स्वर्ग ही श्रेष्ठ ।
जन ऐसे अविवेकी हैं, पहुँच न पाये ठेठ ।।
४५
८१. चित रहे हरा हुआ, आसक्ति रहे सुख भोग ।
निश्चय बुद्धि रहे नहीं, नहीं उतम वे लोग ।।
४६
८२. सुख दुःख द्धंद से रहित हो तज क्षेम और योग ।
कर प्रकाश निष्कामी बने धन्य धन्य वे लोग ।।
४७
८३. बड़ा जलाशय मिलने पर, नही छोटे से काम ।
ब्रह्म प्राप्ति होने पर, नहीं वेद से काम ।।
४८
८४. कर्म किये का पार्थ तूँ, फल की मत कर चाह ।
कर्म हित आलस्य से, कभी न निकले आह ।।
४९
८५. आसक्ति धनंजय त्याग दे, रख सदा सम भाव ।
सिद्धि असिद्धि
योग कर, पार लगेगी नाव ।।
५०
८६. बुद्धि योग से सकाम कर्म, है अति ही तुच्छ ।
समत्व योग को
मानले, शेष रहे न कुछ ।।
५१
८७. फल की इच्छा रखने वाले, रहे सदा ही दीन ।
अनासक्त भाव से जो रहे, सदा ब्रह्म में लीन ।।
५२
८८. समत्व बुद्धि युक्त पुरुष, छोड़े पुण्य और पाप ।
लिपटें नहीँ उंनसे कभी, कर्म नाश है आप ।।
५३
८९. ज्ञानी जन कर्मों के फल को, नहीं रखते हैं पास ।
जन्म बंध से छूटते, पाते परम पद खास ।।
५४
९०. मोह रूप दल दल से, तरे बुद्धि जिस काल ।
प्राप्त हो वैराग्य को, चले नहीं अन्य चाल ।।
५५
९१. अनेक सिद्धांत से विचलित इड़ा, होगी जब अचल ।
समत्व भाव आजायेगा, फिर न सकेगा टल ।।
५६
९२. स्थिर बुद्धि के लक्षण क्या हैं, खड़े जोड़ कर पाणी ।
कैसे चलता बोलता, तब केशव बोले वाणी ।।
५७
९३. सम्पूर्ण कामना त्याग दे, हो जाये संतोष ।
स्थिर बुद्धि के लक्षण हैं नहीं स्वार्थ का होंश ।।
५८
९४. सुख दुःख जो सम मानता, नहीं क्रोध भय राग ।
अर्जुन ! मुनि वह धन्य है, रहे वह सदा जाग ।।
५९
९५. शुभ, अशुभ वस्तु का, नहीं सुख और दुःख ।
रहे सदा सम भाव में, बदलता रुख ।।
६०
९६. किसी को आते देख कर, ले कछुआ अंग समेट ।
स्थिर बुद्धि इन्द्रियों को, लेता यूँही समेट ।।
६१
९७. विषय निवृत हो जाने पर, छूट न सके राग ।
ऐसे पुरुष के पार्थ सुन, पास न आये राग ।।
६२
९८. अतः सम्पूर्ण इन्द्रियों को, वष करना चाहिए ।
मेरे परायण समाहित चित हो, स्थिर रहना चाहिए ।।
६३
९९. विषयों के चिंतन से, आसक्ति पैदा होती है ।
आसक्ति से उन विषयों की, कामना पैदा होती है ।।
६४
१००. विघ्न पड़े ज्योंही इसमे, बीज क्रोध का बोती है ।
क्रोध से सुन पार्थ हमारी, बुद्धि सदा यह सोती है ।।
६५
१०१. स्मरण शक्ति नष्ट होने से, हो ज्ञान का नाश ।
साधन से वह गिर जाता है, तत्व न समझे खास ।।
६६
१०२. राग द्धेष रहित जो जन, अंतर मन से रहे प्रसन ।
बुद्धि स्थिर हो जाती है, यही योग्य आसन ।।
६७
१०३. साधन रहित जो पुरुष हैं, उंनकी बुद्धि नहीं है श्रेष्ठ ।
नास्तिक को शांति कहाँ, सुख न पावे श्रेष्ठ ।।
६८
१०४. हर लेती है वायु नाव को, जब होती जल के बीच ।
मन विषयों में यदि रहे, तो रहे बुद्धि में कीच ।।
६९
१०५. रह कोई पा न सके, बुद्धि जिसकी अस्थिर ।
इन्द्रियां जिसने वश में करली, बुद्धि उसकी स्थिर ।।
७०
१०६. साधारण जन हैं, योगी रहता जाग ।
सांसारिक जब जगाते है, सोता वह महा भाग ।।
७१
१०७. विविध सरिताएँ आ आ कर, सागर में आ मिलती है ।
निर्विकार पुरुषा के मन में, कलियाँ शांति की खिलती है ।।
७२
१०८. ममता और कामना को, जिसने दिया है छोड़ ।
निश्चय शांति वह पाता, कर सके न कोई होड़ ।।
७३
१०९. पार्थ ! स्थिति ब्रह्मनिस्ठ की, नहीं दुःख में खिन्न ।
अंतकाल आनंद है, हो ब्रह्म में लीन ।।
ॐ तत्सदिति ”सांख्य योग” नामक द्धितीयो अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
ॐ
तृतीय अध्याय (३)
१
११०. पार्थ बोला कृष्ण से, नहीं श्रेष्ठ ज्ञान से कर्म ।
प्रवृत क्यों करते कर्म में, समझादो यह मर्म ॥
२
१११. मिले हुए वचन से, नहीं मोह का त्राण ।
निश्चय बात बताइये, हो जाये कल्याण ॥
३
११२. अर्जुन ! सुन इस लोक में, दो प्रकार के योग ।
निष्ठा ज्ञान से ज्ञानी जन की, व निष्काम कर्म का योग ॥
४
११३. त्याग न करने से, मिले न सच्ची राह ।
कर्म तो होता ही हे, चाहे निकले आह ॥
५
११४. त्याग कर्म को हठ से कोई, मन से चिंतन करता है ।
वह दम्भी कहलाता है, स्व बुद्धि को हरता है ॥
६
११५ मन से इन्द्रियां वश में करजो, कर्म सदा ही करता है ।
श्रेष्ठ है वह दुःख रहित है, मौज से वही मरता है ॥
७
११६ कर्म करना श्रेष्ठ है, यही धर्म की राह ।
कर्म त्याग से निर्वाह कठिन है, अपूर्ण युक्ति की चाह ॥
८
११७ आसक्ति रहित हो कर्म किये जा, हो जाये कल्याण ।
यही धर्म है, यही यज्ञ है, सुख से निकले प्राण ॥
९
११८ बिना दीन को दान दिए, कहते है जो लोग ।
वे पाप को खाते है, व्यर्थ हैं उंनके भोग ॥
१०
११९ दान अंत का है बड़ा, नहीं करते वो चोर ।
भूखा तड़फे पास में, कैसे खाए कोर ॥
११
१२० होते उत्पन्न अन्न से, समस्त यहाँ के जीव ।
अन्न होता वृष्टि से, जीते उसे सब पीव ॥
१२
१२१ वृष्टि होती यज्ञ से, कर्मों से होता यज्ञ ।
कर्म हुआ है वेद से, सत्कर्म सभी है यज्ञ ॥
१३
१२२ वेद ईश्वर से हुए, ईश्वर सब में लीन ।
अतः यज्ञ में ईश्वर है, नहीं मेख और मीन ॥
१४
१२३ शास्त्र विधि से नहीं चलते जो, व्यर्थ हे उनका जीना ।
पापी और पामर कहलाते, व्यर्थ है खाना पीना ॥
१५
१२४ आत्मा से प्रेम है जिनको, है उसी में लीन ।
नहीं प्रयोजन कर्म से, कभी न होते खिन्न ॥
१६
१२५ करने से या न करने से, किंचित नहीं प्रयोजन है ।
नहीं स्वार्थ उसका कुछ भी, सबके लिए सुयोजन है ॥
१७
१२६ निर्लिप्त भाव से कर्म कियेजा, मिले प्रभु संग
पाई सिद्धि जनकादि ने, नहीं भान था अंग ॥
१८
१२७ महापुरुष का आचरण, करे अन्य सब लोग ।
प्रमाण उसका मानते, कर पाते सुख भोग ॥
१९
१२८ कर्म नहीं त्रिलोक में, मेरे लिए तूँ जान ।
फिर भी कर्म में लीन हूँ, नहीं तो टूटे आन ॥
२०
१२९ यदि कर्म त्याग दूँ पार्थ ! मैं, नक़ल करे सब लोग ।
होंगे लोक सब भ्रष्ट सुन, और हनन सब लोग ॥
२१
१३० आसक्त हो अज्ञानी जन, (जैसे) कर्म जगत के करता है
अनासक्त भाव से ज्ञानी वैसे, लोक कर्म को करता है ॥
२२
१३१ ज्ञानी का कर्तव्य यही है, भ्रम कहीं न होने दे ।
परमात्मभाव में स्थित हुआ, कर्म से विमुख न होने दे ॥
२३
१३२ सम्पूर्ण कर्म होते है, सुन पार्थ ! प्रकृति द्धारा ।
अहंकार से अज्ञानी कहता, "मेने किया है सारा" ॥
२४
१३३ गुण कर्म विभाग के जो, तत्व को जानने वाला है ।
"यह सारा मेने किया है", कभी न कहने वाला है ॥
२५
१३४ गुण कर्म से जो लिप्त जो जन है, कभी न चलायमान करे ।
ज्ञानी का कर्तव्य यही है, ढंग से उंनके कष्ट हरे ॥
२६
१३५ ममता और आशा रहित हो, अर्पण मुझको करदे कर्म ।
दुःख रहित हो युद्ध तूँ कर अब, समझ गहन यह मर्म ॥
२७
१३६ सुबुद्धि और श्रद्धा से युक्त हो, जो पालन इसका करता है ।
स्वयं छूटता सर्व कर्मों से, जग के कष्ट वह हरता है ॥
२८
१३७ अश्रद्धा से युक्त जो जन है, नहीं पाते कल्याण ।
उल्टे कर्म ही करते है, नहीं पाते वे त्राण ॥
२९
१३८ हठ योग से लाभ नहीं, प्रकृति वस सब होता है ।
मूर्ख ! अच्छी बातों के अवसर , आँख मूंद कर सोता है ॥
३०
१३९ राग द्धवेष से दूर रहे, लग जाएगा पार ।
कल्याण मार्ग के विघ्न हैँ, देते नहीं कुछ सार ॥
३१
१४० उतम धर्म हमारा है, अच्छा इस हित मरना है ।
धर्म अन्य का देता भय है, व्यर्थ कार्य नहीं करना है ॥
३२
१४१ फिर किससे प्रेरित हो कर, करता है सब पाप ।
पार्थ बोला कृष्ण से, बता दीजिये आप ॥
३३
१४२ यह काम क्रोध का मूल है, यही बड़ा है वैरी ।
पापी कभी तृप्त न होता, जन की करता ढेरी ॥
३४
१४३ धुएं से अग्नि, मल से दर्पण, जिस प्रकार ढ़क जाता है ।
वैसे ही ज्ञान यह काम के द्धारा, सुनो पार्थ ढ़क जाता है ॥
३५
१४४ मन, बुद्धि व इन्द्रियों में, इस काम का वास ।
मोहित करता जीव को, कर इसका तूँ नाश ॥
३६
१४५ इन्द्रियों को वश में करले, काम पापी को मार ।
ज्ञान विज्ञान का वैरी है, देता न होने पार ॥
३७
१४६ इन्द्रियां श्रेष्ठ बलवान है, इनसे से परे है मन ।
है बुद्धि मन से परे, समझे है यदि जन ॥
३८
१४७ परे बुद्धि से आत्मा, सदा जहाँ आनंद ।
समझ काम को मारदे, दीन सदा आनंद ॥
३९
१४८ वश करले मन बुद्धि से, समझ शक्ति का रूप ।
अजर, अमर है आत्मा, अलख, अनादि अनूप ॥
ॐ तत्सदिति “कर्म योग” नामक तृतीय अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
चतुर्थ अध्याय (४)
१
१४९. कहा सूर्य को कल्प आदि में, यह अविनाशी योग ।
कहा कृष्ण ने पार्थ ! सुन, रहे न मन में रोग ।।
२
१५०. सूर्य ने स्व पुत्र मनु को, कहा यह उतम ज्ञान ।
कहा मनु ने स्व पुत्र को, इक्ष्वाकु नाम ।।
३
१५१. परम्परा से प्राप्त योग को, राजर्षियों ने जाना ।
किन्तु बाद में हुआ लोप वह, नहीं किसी ने जाना ।।
४
१५२. वही पुरातन योग यह, कहूँ पार्थ ! सुन बात ।
तूँ ममः भक्त अरु प्रिय सखा, सुन रहस्य की बात ।।
५
१५३. बोला अर्जुन ! कृष्ण तुम्हारा, जन्म हुआ इस काल ।
जन्म भानु का अति पुराना, कैसे कहो सब हाल
६
१५४. तेरे मेरे कई जन्म यहाँ, अर्जुन ! हुए हैं जान ।
नहीं स्मरण वे कुछ तुझे, मुझे स्मरण सब जान
७
१५५. मै अविनाशी अजन्मा हूँ, भूत जीवों का रक्षक हूँ ।
योग माया से प्रकट हो कर, दुष्टों का मैं भक्षक हूँ ।।
८
१५६. जब जब धर्म पर संकट आता, और अधर्म बढ जाता ।
तब लेता अवतार पार्थ मैं, पाप मिटने आता ।।
९
१५७. साधुओं के उद्धार हित, व दुष्टों का नाश ।
स्थापना करता हूँ, मैं भक्तों का दास ।।
१०
१५८. मेरा वह जन्म अलोकिक, दिव्य रूप है जान ।
जो तत्व से जानता, मुक्ति करता पान ।।
११
१५९. राग, भय रहित क्रोध से, हुए पूर्व लोग ।
स्वरूप को पा गए, ज्ञान, रूप, तप, योग ।।
१२
१६०. जो मुझको जैसे भजता, मैं वैसे ही भजता हूँ ।
जो जानते इस रहस्य को, उंनको वैसे ही सजता हूँ ।।
१३
१६१ कर्मों का फल मन में रख कर, देवों को जो भजते है ।
पा नहीं सकते वे भर्मित जन, सदा चक्र में रहते है ।।
१४
१६२. गुण कर्म विभाग से में, रचे वर्ण सुन चार ।
उंनका कर्ता अविनाशी हूँ, सर्व रूप है सार ।।
१५
१६३. सर्व कर्ता तो भी अकर्ता, नहीं कर्मों में लीन ।
जो तत्व यह जानता, कभी न होता खिन्न ।।
१६
१६४. पूर्व में जो हो गये, यहाँ मुमुक्ष जन ।
तूँ भी वैसा बन अरे, पूर्ण लगाले मन
१७
१६५. कर्म और अकर्म क्या है, बुद्धि जन चकराते है ।
तत्व तुझसे कहता हूँ, सुन, कोई नहीं घबराते है
१८
१६६. गहन गति है कर्म की, कर्म अकर्म है जान ।
निसिद्ध कर्म क्या है यहाँ, इनको ले पहिचान ।।
१९
१६७. अहंकार रहित हो कर्म करे, समझ त्याग का सार ।
पुरुष वाही यहाँ धन्य है, दूँ उनको मैं तार ।।
२०
१६८. संकल्प रहित कर्म है जिसके, नहीं कामना शेष ।
जले कर्म सब ज्ञान से, सच पंडित का वेष ।।
२१
१६९. केवल शरीर से कर्म करे, नहीं लगता है पाप ।
अंतःकरण से शुद्ध है, तिर जाता है आप ।।
२२
१७०. संतुष्ठ रहे जो पाया है, रखे सदा सम भाव ।
लिप्त न होवे कर्म से, लगे पार तब नाव ।।
२३
१७१. अर्पण करता ब्रह्म है, हवन द्रव्य है ब्रह्म ।
अग्नि ब्रह्म, सब ब्रह्म ही ब्रह्म है, पाता वह भी ब्रह्म ।।
२४
१७२. योगी जन यज्ञ हैं करते, इन्द्रिय जीत कहलाते है ।
काम,क्रोध,मद , लोभ छोड़कर, मुझसे दिल बहलाते है ।।
२५
१७३.लोग सेवा में रत हैं रहते, कई अष्टांग योगी होते है ।
अहिंसादि व्रत है करते, कई बीज प्रेम का बोते है ।।
२६
१७४. कई नाम का जप हैं करते, कई करते है प्राणायाम ।
शुभ कर्म सभी सुन यज्ञ है, सुबह हो या शाम ।।
२७
१७५. यज्ञ रहित जन को नहीं, शुभ दायक यह लोक ।
यज्ञ यहाँ जो करते है, सुधरे लोक परलोक ।।
२८
१७६. नानाभाँति यज्ञ यहाँ, कहते चारो वेद ।
निष्काम कर्म करता रहे, हो नहीं किंचित खेद ।।
२९
१७७. ज्ञान सबसे श्रेष्ठ है, न शेष रहे फिर मोह ।
सत , चित , आनंद को, मनुज न समझे ओह ।।
३०
१७८. क्यों न हो कितना भी पापी, ज्ञान लगाये पार ।
ज्ञान रूप नोका ऐसी है, दे भव से वह तार ।।
३१
१७९. जले काठ तो आग में, ज्ञान जलाये कर्म ।
अतः ज्ञान ही श्रेष्ठ है, ले समझ यह मर्म ।।
३२
१८०. जितेन्द्रिय श्रद्धा से युक्त हो, पा जाता है ज्ञान ।
परम शांति को पा जाता है, नहीं जग का कुछ भान ।।
३३
१८१. भगवत् विषय को जाने नहीं, परमार्थ से डिग जाता है ।
दोनों लोक बिगड़ जाते है, कभी न शांति पाता है ।।
३४
१८२. अर्जुन ! संशय काट कर, ले ज्ञान रूप तलवार ।
हो खड़ा अब युद्ध कर, मोह त्याग, ललकार ।।
ॐ तत्सदिति “ज्ञान कर्म सन्यास योग” नामक चतुर्थ अध्यायः समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
पञ्चम अध्याय (५)
१
१८३. निष्काम कर्म और कर्म सन्यास में, क्या है कृष्ण श्रेष्ठ ।
तारीफ़ दोनों की करते हो, मन में उठता प्रश्न ।।
२
१८४. दोनों कल्याण के दाता है, ये लगावे पार ।
किन्तु सुगम निष्काम कर्म है, आवे नहीं कुछ भार।।
३
१८५. अर्जुन त्यागे जिस पुरुष ने, काम, क्रोध अभिमान ।
लोभ, द्धेष को त्याग दे, वह स्वयं भगवान ।।
४
१८६. सन्यास व निष्काम कर्म में, नहीं कुछ भी है भेद ।
भेद माने वो मुर्ख जन, नहीं पंडित ज्ञाता वेद।।
५
१८७ सांख्य योगी जाने तत्व से, माने कुछ नहीं करता हूँ।
अर्थों बरतती इन्द्रियां, नहीं कुछ भी हरता हूँ ।।
६
१८८ शब्द, स्पर्श से लिप्त न होव, न रूप, रस या गंध ।
चलता, बोले, या बैठता , बने कभी न अंध ।।
७
१८९ कृष्णार्पण करदे कर्मों को, दे आसक्ति त्याग ।
कमल सम रहे सदा, है वह महाभाग ।।
८
१९० अंतःकरण की शुद्धि हित, करे योगी सब कर्म ।
सकमी फल हैं चाहते, समझे नहीं यह मर्म
९
१९१. मोहित हो रहे जीव सब, ढ़का माया ने ज्ञान।
पुण्य ग्रहण कभी न करे, यह माया भगवान।।
१०
१९२. ज्ञान से अज्ञान का, हो गया है नाश ।
सुन भानु सम, सदा करे प्रकाश ।।
११
१९३. भेद न माने ज्ञानी जन, हो विप्र या महा होम ।
हाथी, कुता, भेड़ हो, सबको समझे ओम।।
१२
१९४. सम भाव में स्थित सदा, जीत लिया संसार
ऐसे जन संग ब्रह्म है, हो भव से सब पार ।।
१३
१९५. हर्ष न होवे प्रिय वस्तु पा, जाये पर नहीं शोक ।
निश्चय ब्रह्म में लीन हो, नहीं सकता कोई रोक ।।
ॐ तत्सदिति “कर्म सन्यास योग” नामक पञ्चम अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
षष्ठम अध्याय (६)
१
१९६. कर्म फल चाहे नहीं, करे सदा शुभ कर्म ।
सन्यासी वह योगी है, जाने धर्म का मर्म ।।
२
१९७. त्यागे नहीं संकल्प है जिसने, योगी नहीं कहलाता है ।
निष्काम भाव से कर्म करे जो, कभी नहीं पछताता है ।।
३
१९८. नहीं कोई मित्र और शत्रु, स्वयं स्वयं का सब कुछ है ।
भव से होव पार या वह करे, नर्क को कूच है ।।
४
१९९. सर्दी, गर्मी या सुख दुःख में, जो सदा है सम ।
अनादर या अपमान में, करे कभी न गम ।।
५
२००.कभी न करे लोभ पार्थ सुन, कनक मिटटी सम मान ।
है धरणी पर धन्य वही, ले खुद को पहचान ।।
६
२०१.यदि मन को वश में कर लिया, मानो लगा है पार ।
मोह माया में लिप्त से, नहीं आता कुछ लार ।।
७
२०२. अति खाता या कुछ नहीं खाता, अति सोता या रह जागता ।
सिद्ध न होता योग ऐसों को, नहीं शांति को पाता ।।
८
२०३ यथा योग्य आहार शयन हो, होता सिद्ध है योग ।
परम शक्ति को पाता है, नहीं कभी दुःख भोग ।।
९
२०४. वायु रहित स्थान में जैसे, दीपक बुझ नहीं सकता है ।
वैसी ब्रह्म वेता की स्थिति, योगी वही लगता है ।।
१०
२०५. संकल्प उत्पन्न होते ही, करदे उसका नाश ।
मन, इन्द्रियां वश में करले, वही योगी है खास ।।
११
२०६ सबमे मुझे जो देखता, समझ वह है सार ।
मैं भी उसको देखता, देता हूँ में तार ।।
१२
२०७. मन अति चञ्चल होता है, महावीर बलवान ।
कैसे वश में कृष्ण हो, देदो अब यह ज्ञान ।।
१३
२०८.निसंदेह यह चञ्चल होता, सत्य पार्थ ये बात ।
अभ्यास, वैराग्य, वस हॉट है, करे न कभी घात ।।
१४
२०९. चाहे न मन को वश करना, नहीं सकता मन जीत ।
साधन करता प्रयत्न से, ले जीत मन नित ।।
१५
२१०. शिथिल यत्नी जो लोग कृष्ण ! है, साध सके न योग
किस गति को पाते हैं, कहो ऐसे वे लोग ।।
१६
२११.साधन शिथिल होने से, साध न सके योग ।
नष्ट दोनों और से, ना हरि ना भोग ।।
१७
२१२. इस संशय को दूर कर, है योग्य ही आप ।
नहीं संभव कोई अन्य है, वही उतारे आप ।।
१८
२१३.ऐसे पुरुष का पार्थ सुन, कभी न होता नाश ।
इस लोक परलोक में, कही न होता हाव्श
१९
२१४. शुभ कर्म जो सदा करता है, दुर्गति को नहीं पाता है ।
किन्तु स्वर्ग सुख भोग के वो, पुनः जन्म ले आता है ।।
२०
२१५. उन लोको में यदि नहीं गया तो, योगी के यहाँ आता है ।
ऐसा जन्म अति दुर्लभ है, पूर्व कमाई पाता है ।।
२१
२१६. पूर्व के अभ्यास सब, बताते भगवत राह ।
त्याग देता सकाम फलों को, करता युक्ति चाह ।।
२२
२१७. मंद प्रयत्न का यह हाल है, तब योगी की क्या बात ।
परम गति को पाता है, सदा प्रभु के साथ ।।
२३
२१८. तपस्वी एवं पंडित से, श्रेष्ठ योगी होता है ।
अतः पार्थ ! तूँ योगी बन जा, भोगी केवल सोता है ।।
२४
२१९ निरन्तर मुझे जो मन से भजता, ऐसा योगी प्यारा है ।
परम श्रेष्ठ वही धन्य है, काटे कष्ट वह सारा है ।।
ॐ तत्सदिति “आत्म संयोग” नाम छठा अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
सप्तम अध्याय (७)
१
२२०. अनन्य प्रेम पुजारी हो, रहे लीन ममः योग।
कहूँ रहस्य अब पार्थ सुन, पार लगेंगे लोग ।।
२
२२१. हजारो में कोई एक विरला, मुझे पाने का यत्न करे ।
उनमें से भी विरला कोई, जान तत्व से ध्यान धरे ।।
३
२२२. पृथ्वी, जल तथा अग्नि, वायु और आकाश ।
मन, बुद्धि अहंकार में, आठ प्रकति खास ।।
४
२२३. यह अपरा या जड़ प्रकृति मेरी, द्धितीय चेतन या परा ।
सम्पूर्ण जगत यह धारण उससे, सुन वचन मेरा खरा ।।
५
२२४. दोनों प्रकृति से उत्पन्न हुए, सम्पूर्ण यहाँ के जीव ।
उत्पति तथा प्रलय मैं करता, ध्यान धरले हीय ।।
६
२२५ धनञ्जय सुन मेरे सिवा, नहीं अन्य कुछ चीज ।
सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हूँ, मैं सबका हूँ बीज ।।
७
२२६. सम्पूर्ण भूतों का कारण हूँ, तपस्वियों तेज ।
बुद्धिमानों की बुद्धि में हूँ, बलियों को बल देता देता भेज ।।
८
२२७. सत्व, रज व तम से जो, पैदा होते भाव ।
सब मेरे से होते है, फिर भी निर्लिप्त हैं हाव ।।
९
२२८. तीनो गुणों से संसार यह सारा, मोहित हो रहा है ।
परे इन सबसे, नहीं तत्व को जाने, वह सो रहा है ।।
१०
२२९ बड़ी दुस्तर त्रिगुण मयी माया, जो मुझे ही भजता है ।
लांघ माया को ज्ञानी बनता, भव सागर वह तिरता है ।।
११
२३०.मूढ़ लोग भजते नहीं, यदभि सुगम उपाय ।
आसुर बुद्धि वे नीच हैं, नहीं राह वो पाय ।।
१२
२३१. अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु, ज्ञानी चार प्रकार के भक्त ।
ज्ञानी सबसे उतम है, अति प्रिय हर वक्त ।।
१३
२३२. बहु जन्मों के अंत में, कहीं हो पाये ज्ञान ।
वासुदेव ही वह सब है, दुर्लभ उसको जान ।।
१४
२३३. भोग कामना रख कर जो, भ्रष्ट ज्ञान से होते है ।
पूजा करते अन्य देवों की, विचारों के थोते हैं ।।
१५
२३४. सकाम भाव से जो जिसको भजता, श्रद्धा होती पूरी ।
वही देव मिलवाता उसको, नहीं रखता कुछ दुरी ।।
१६
२३५. जो चाहता जैसा भोग है, सब कुछ उसको मिलता है ।
यदि सींचेगा पौधा कोई, फूल अवश्य खिलता है ।।
१७
२३६. पर नाशवान है वह फल उनका, अल्प बुद्धि का काम ।
प्राप्त होते अंत देवों को, नहीं मोक्ष का नाम ।।
१८
२३७. पर जो मुझको जैसे भजता है, अंत में मुझको पाता है ।
मेरी ज्योति में मिल कर वह, अनंत काल तक सुख पाता है ।।
१९
२३८. योग माया से मैं आता हूँ, जो नहीं जानते भेद ।
मनुष्य मुझको मानते, है बुद्धि पर खेद ।।
२०
२३९. मुझ अविनाशी का, अज्ञानी जन, जन्म मरण माने है ।
काम,क्रोध लोभ में उलझे, नहीं तत्व को जाने है ।।
२१
२४०. निष्काम भाव से जो करते, नष्ट हुए सब पाप ।
मेरी शरण में आते हैं, ब्रह्म को जाने आप ।।
२२
२४१. अधिभूत, अधिदेव और अधियज्ञ मुझ वासुदेव को जाने ।
अंत में मुझ में लीन हैं होते, मुक्ति स्वाद पाने को ।।
ॐ तत्सदिति “ज्ञान विज्ञान योग” नामक सप्तम अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
अष्ठम अध्याय (८)
१
२४२. ब्रह्म क्या और अध्यात्म क्या है, और क्या है कर्म ।
अधिभूत व अधिदेव क्या है, प्रभू समझादो मर्म ।।
२
२४३. अधियज्ञ क्या है प्रभुवर, कैसे जाना जाता है ।
अंत में कैसे याद आते तुम, क्या जीव ब्रह्म का नाता है ।।
३
२४४. जिसका कभी नाश न होता, ऐसा तो है ब्रह्म ।
जीवात्मा को अध्यात्म है कहते, द्रव्य त्याग है कर्म ।।
४
२४५. उत्पति विनाश वाले पदार्थ, अधिभूत कहलाते है ।
पुरुष हिरण्यमय अधिदेव, सत्य तुम्हे बतलाते है ।।
५
२४६. इसी शरीर में मैं वासुदेव ही, अधियज्ञ हूँ अर्जुन सुनले ।
स्मरण करने अंत में जाते, पाते मुझको यह सुनले ।।
६
२४७. अंतकाल में जो जैसा स्मरण कर, सुन यहाँ से जाता है ।
उस स्मरण अनुसार बाद में, वैसा जीवन पाता है ।।
७
२४८. सदैव जिसका चिंतन करता, अंत में वही आता है याद ।
अतः स्मरण कर निरंतर मेरा, युद्ध भी करना रख तूँ याद ।।
८
२४९. परमेश्वर के ध्यान का, हो जिसको अभ्यास ।
सचिदानंद को पाता है, होता नहीं निराश ।।
९
२५०. सर्व नियंता सर्वज्ञ अनादि, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म ।
स्मरण ऐसे विभु का करता, मानूँ उसका हुक्म ।।
१०
२५१. योग बल से मध्य भृकुटि, रख कर अपने प्राण ।
दिव्य रूप स्मरण से पाता, होता देह का त्राण ।।
११
२५२. वेद ज्ञाता प्रभु को कहते, परम नाम ओंकार ।
'देव' महात्मा यत्न करे सब, अंत में लगते पार ।।
१२
२५३. सब इन्द्रियों को वश में करके, रखे मस्तक प्राण ।
ॐ अक्षर का उच्चारण करके, करे देह का त्राण ।।
१३
२५४. परम पद वह पा जाता है, होता ब्रह्म में लीन ।
अखंड स्मरण जो करता मेरा, योगी कभी न होता खिन्न ।।
१४
२५५. पुनर्जन्म नहीं होता फिर है, मुझको ही पा जाता है ।
ब्रह्म लोक में जाने वाला भी, एक दिन वापस आता है ।।
१५
२५६. हजार चोकड़ी युग अवधि है, ब्रह्मा के दिन रात की ।
योगी जान काल तत्वों को जाने, करे खोज इस बात की ।।
१६
२५७. सम्पूर्ण दृश्य जगत यह जो है, ब्रह्मा से पैदा होता है ।
निशा ब्रह्मा की जब है आती, लय उसमे हो सोता है ।।
१७
२५८. शतायु होकर ब्रह्मा भी, होता शांत स्वलोक ।
अति पर जो विलक्षण ब्रह्म है, बुझती कभी न ज्योत ।।
१८
२५९. अव्यक्त अक्षर जिसे कहा है, वह भाव परम गति है ।
परम धाम मेरा पाता है, हो जिसकी सुमति है ।।
१९
२६० सर्व लोक है अंतर्गत ब्रह्म के, परिपूर्ण जगत है सारा ।
भक्ति से पाने योग्य परम पुरुष है, नहीं और कुछ चारा ।।
२०
२६१. पीछा न आने न आने की गति की, दूँ बता मैं बात ।
मार्ग दो शुक्ल, कृष्ण है, दूँ बता मै तात ।।
२१
२६२. अग्नि उतरायण का अभिमानी, देवता रहता है छः मास ।
उस मार्ग में मर कर जो जाता, नहीं आने की आस ।।
२२
२६३. धूमाभिमानी कृष्णपक्ष का, दक्षिणायन छः मास ।
उस समय जो मरता है, पुनः पृथ्वी की राह ।।
२३
२६४. शुक्ल कृष्ण के मार्ग दोनों ही, माने गये सनातन है ।
देवयान व पितृयान हैं कहते, फल देते छूटे तन है ।।
२४
२६५. देवयान में जो जाता है, नहीं लोट कर आता है ।
पितृयान जो जाता है, वह आ फिर से दुःख पाता है ।।
२५
२६६. जिसको ज्ञान हो जाता है, वह शुक्लपक्ष का मार्ग ।
अज्ञानी जो रहता है, वहां कृष्णपक्ष का मार्ग ।।
२६
२६७. जान लेता जो इस तत्व को, वह परमधाम को पाता है ।
मोहित नहीं होता किसी पर, देवयान को जाता है ।।
२७
२६८. यज्ञ, तप व दानादि से, ऊपर उठता योगी है ।
परम पद को पा ही लेता, कभी न रहता भोगी है ।।
ॐ तत्सदिति “अक्षर ब्रह्मयोग” नामक अष्ठम अध्याय समाप्त
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
नवम अध्याय (९)
१
२६९. तूँ दोष रहित है भक्त मेरा, कहूँ रहस्यमय ज्ञान ।
दुःखमय संसार का, रहे न किञ्चित भान ।।
२
२७०. सर्व विद्दाओं का राजा है, परम तत्व का सार ।
अति उतम व साधन सुगम है, देव भव से तार ।।
३
२७१. श्रद्धा रहित जन है वे, मुझको पा नहीं सकते है ।
संसार चक्र में भ्रमण करते, मुक्ति पा नहीं सकते है ।।
४
२७२. यह जगत परिपूर्ण मुझसे, जल से बर्फ समान ।
नभ में जेसे वायु स्थित है, वैसे तूँ मान ।।
५
२७३. आदि कल्प से रचता भूत सब, अंत में लय सब होते है ।
त्रिगुणमयी माया से होता, कर्म फल सब होते है ।।
६
२७४. आसक्ति रहित जो भक्त है मेरा, बांध सके न कर्म ।
कई मूढ न मुझको जानते, नहीं समझते धर्म ।।
७
२७५. अज्ञानी जन रिपु समान है, ज्ञानी जन है 'देव' ।
जान मुझे वे मुझको भजते, बुरी न रखे टेव ।।
८
२७६. मेरे नाम का गुण कीर्तन, करते बारम्बार प्रणाम ।
मुझ विराट को पूजते, भजते मेरा नाम ।।
९
२७७. श्रोत कर्म यज्ञादि में हूँ, हूँ पितरों का अन्न ।
औषधि,मन्त्र, घृत अग्नि हूँ, और सुन हवन ।।
१०
२७८. सम्पूर्ण जगत का धाता मैं हूँ, मैं ही पोषण कर्ता ।
कर्मों के फल का दाता हूँ, भक्तों के कष्टों को हरता ।।
११
२७९ माता, पिता, पितामह मैं हूँ, हूँ पवित्र ओंकार ।
ऋग , साम और यजुर्वेद हूँ, और हूँ नोंकार ।।
१२
२८०. शुभा शुभ को देखने वाला, हूँ सबका मैं स्वामी ।
लेता शरण में भक्त को मेरे, भरत उसी की हामी ।।
१३
२८१. सूर्य हूँ तप कर वर्षा करता, सत असत सब मेरे ।
पुण्य से जो स्वर्ग को पाते, क्षीण होने पर फेरे ।।
१४
२८२ अनन्य भाव से जो है भजते, वे मुझको ही पाते है ।
अन्य देवों को जो पूजे जन, पूर्ण समझ नहीं पाते है ।।
१५
२८३. पूजन सब वह मेरा है, उन्हें नहीं कुछ ज्ञान ।
पुनर्जन्म वे पाते है, नहीं कुछ उनको भान ।।
१६
२८४. देव, पितर या भूत कोई हो, पूजे उसी को पाता हूँ ।
मेरा भक्त जो तत्व को जाने, मेरे को ही पाता है ।।
१७
२८५. पत्र, पुष्प, फल, जल से कोई, पूजन मेरी करता है ।
सुबुद्धि प्रेम से अर्पण कर. ध्यान मेरा वह धरता है ।।
१८
२८६. सगुण रूप से प्रकट होकर के, प्रीति सहित मैं खाता हूँ ।
कर्म, हवन व दान, तप सब, कर अर्पण मैं पाता हूँ ।।
१९
२८७. कर्म अर्पण कर देने से, होगा बंधनहीन ।
अंत में मुझको पायेगा, होगा मुझमे लीन ।।
२०
२८८. सब भूतों में व्यापक हूँ, सुन अर्जुन सम भाव ।
प्रिय अप्रिय न कोई मेरा, नहीं मुझको कुछ चाव ।।
२१
२८९. भक्त जो प्रेम से भजता मुझको, सुन वहां मैं आता हूँ ।
चाहे भला दुराचारी हो, प्रेम उसका मैं पाता हूँ ।।
२२
२९०. दृढ़ निश्चय वह पापी मेरा, रोज नाम हे लेता है ।
धर्मात्मा सुन वह हो जाता, भव से नैया खेता है ।।
२३
२९१. स्त्री, वैश्य चाहे शूद्र हो, मेरी शरण में जो आते है, ।
कैसे ही पापी क्यों न भला हो, वे मुझको ही पाते है ।।
२४
२९२. फिर क्या कहना विप्र, ऋषि का, परम गति को पाते है ।
भक्तजन और पुण्यशिल तो, मुझे बहुत ही भाते है ।।
२५
२९३. मनुष्य जन्म यह अति दुर्लभ है, है भजन में सार ।
पता नहीं कब काल दबाये, जीना है दिन चार ।।
२६
२९४. अनन्य प्रेम से भज मुझको तूँ, रख श्रद्धा है पूरी ।
चतुर्भुज रूप को मन में लेले, रहे न मुझसे दूरी ।।
ॐ तत्सदिति “राजविद्दा राज गुप्त योग” नामक नवम अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
दशम अध्याय (१०)
१
२९५. परम प्रभाव एवं रहस्यपूर्ण, वचन तुम्हे सुनाता हूँ ।
परम प्रेमी भक्त तूँ मेरा, दुर्गुण सर्व भुलाता हूँ ।।
२
२९६. मेरी उत्पति व लीला को, ऋषि जाने न 'देव' ।
जो जाने अजन्मा मुझ ईश को, भव की नैया खैव ।।
३
२९७. सुख, दुःख, क्षमा, दया आदि, जितने भी उठते भाव ।
अहिंसा, समता, संतोष, तप , सब में मेरे भाव ।।
४
२९८. सप्त महर्षि चार सनकादि, मनु आदि मुझ से पैदा हुए ।
इनसे जगत की सारी प्रजा, मनु आदि सब पैदा हुए ।।
५
२९९. जो जाने इस योग शक्ति को, ध्यान मेरा वह करता है ।
एकी भाव से स्थिर हो कर वह, अंधकार को हरता है
६
३००. मैं ही जगत का कारण हूँ, चेष्टा सब मुझ से करते है ।
श्रद्धा भक्ति से युक्त बुद्धि जन, मुझ प्रभु को भजते है ।।
७
३०१. रहे मन सदा मुझ में ही, भक्ति से गुण गान करें ।
गुण प्रभाव का कथन करे, एकाग्रचित हो ध्यान धरे ।।
८
३०२. निरंतर ध्यान में लगे हुए, और प्रेम में लीन ।
वे मुझे ही पाते है, कभी न होते खिन्न ।।
९
३०३. ज्ञान रुपी अंधकार को, कर प्रकाश मै नष्ट करूँ ।
तत्वज्ञान दीपक संजोये, भक्तों के मैं कष्ट हरुँ ।।
१०
३०४. परब्रह्म परमेश्वर और, परम पवित्र है आप ।
देवों के हो देव प्रभु, परम सनातन आप ।।
११
३०५. नारद, शारद और व्यास सब, गए गुण दिन रात ।
केशव ! यह सब सत्य है, जो कही आपने बात ।।
१२
३०६. प्रभुवर ! लीला रूप को, जाने न दानव देव ।
है देवों के देव प्रभु, जानो तुम स्वयंमेव ।।
१३
३०७. व्याप्त आप में लोक सब, कहे विभूति आप ।
योगेश्वर जानूँ आपको, अमित दीजिये छाप ।।
१४
३०८ योगशक्ति, विभूति का, कहो विस्तार अब नाथ ।
अमृतमय सुनूँ वचन सदा मैं, छोड़ूँ कभी न साथ ।।
१५
३०९. नहीं अन्त विस्तार का, सुन बात प्रिया यह पार्थ ।
सबका हूँ मैं आत्मा, कभी न छोड़ूँ साथ ।।
१६
३१०. आदि, मध्य और अन्त सब, मैं ही हूँ यह जान ।
विष्णु और सूर्य हूँ, सुन खोल कर कान ।।
१७
३११ मरीचि नामक वायु मैं हूँ, नक्षत्रों में चन्द्र ।
वेदों में हूँ सामवेद, और देवों में इंद्र ।।
१८
३१२. इन्द्रियों में मन मैं हूँ, चेतनता में ज्ञान ।
एकादश रुद्रों में शंकर हूँ, अष्ठ वसुओं में अग्नि जान ।।
१९
३१३, यक्ष रिपुओं में कुबेर हूँ, जो है धन का स्वामी ।
सुमेरु, पर्वत शिखरों में, सुन पार्थ में नामी ।।
२०
३१४. पुरोहितों में वृहस्पति हूँ, सेना नायक कार्तिक जान ।
जलाशयों में सागर हूँ मैं, महर्षियों में भृगु को जान ।।
२१
३१५. ओंकार हूँ वचनो में, यज्ञों में जप यज्ञ ।
पहाड़ो में स्थिर हिमालय, सुन सुन मैं सर्वज्ञ ।।
२२
३१६. पेड़ों में पीपल हूँ, देवर्षि नारद हूँ मैं ।
चित्ररथ हूँ गायकों में, व सिद्धों में कपिल हूँ मैं ।।
२३
३१७. हाथियों में ऐरावत हूँ, अश्वों में उच्चेः श्रव घोड़ा ।
मनुष्यों में राजा मैं हूँ, शस्त्रों में वज्र हूँ चौड़ा ।।
२४
३१८. गौओं में मैं कामधेनु हूँ, सर्पों में वासुकि नाग ।
संतान हेतु कामदेव हूँ, नागों में हूँ शेषनाग ।।
२५
३१९. जलचरों में वरुण देवता, शाषकों में यमराज ।
अर्यमा नामक पित्रेश्वर हूँ, पशुओं में मृगराज ।।
२६
३२०. दैत्यों में प्रहलाद भक्त हूँ, गरुड़ पक्षियों में जान ।
गिनती कर्ता में समय हूँ, पवित्र कर्ता वायु मान ।।
२७
३२१. सरिताओं में भागीरथी, शस्त्र धारियों में हूँ राम ।
पेय पदार्थ में दूध हूँ, और फलों में आम ।।
२८
३२२. मछलियों में मगरमच्छ हूँ, सबका आदि अन्त ।
तत्व से मुझे जानते, सुन वे सच्चे संत ।।
२९
३२३. विद्दाओं में ब्रह्मविद्दा, वादो में वाद ।
अक्षरों में अकार जान तूँ , भक्ति करे मम पाद ।।
३०
३२४ समासों में द्धंद्ध समास मैं, सुन मैं महाकाल ।
सबका धारण पोषण करता, है यह सच्चा हाल ।।
३१
३२५. उत्पति का कारण हूँ मैं,और मृत्यु तूँ मुझको जान ।
वाक, स्मृति, मेधा, क्षमा हूँ, और धृतिभि मुझको मान ।।
३२
३२६. श्रुतियों में वृहत्साम हूँ, छंदों में गायत्री छंद ।
महीनों में मार्गशीर्ष हूँ, दमनकर्ताओं का दंड ।।
३३
३२७. ऋतुओं में बसंत ऋतु हूँ, सात्विकों का सात्विक भाव ।
पांडवों में मैं तूँ हूँ, पार लगाऊ नाव ।।
३४
३२८. कवियों में शुक्राचार्य हूँ, और भावों में मौन ।
ज्ञानियों का तत्वज्ञान हूँ, दुःखी कभी वह होन ।।
३५
३२९. नहीं रहित है मुझसे कोई, कहा संक्षिप्त, विस्तार ।
जो तत्व से मुझको जाने, देता हूँ मैं तार ।।
३६
३३०. शक्तियुक्त सब वस्तुए, मेरे तेज से तूँ हुई जान ।
क्या प्रयोजन बहु जाने तूँ, जगत अंश से धारण मान ।।
ॐ तत्सदिति "विभूति योग" नामक दशम अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
एकादश अध्याय (११)
१
३३१. परम गोपनीय वचन प्रभु ! नष्ट हुआ अज्ञान ।
उत्पति प्रलय का हाल सुना, लिया प्रभाव है जान ।।
२
३३२. जैसा अपने को कहते हो प्रभु ! वैसे ही हो आप ।
किन्तु महारूप अब प्रत्यक्ष दिखा कर, अंकित करदो छाप ।।
३
३३३. हजारो मेरे रूप ये नाना, ले पार्थ अब देख ।
अदिति, पुत्र व आठ वसु, एकादश रुद्रों को देख ।।
४
३३४. चराचर सहित सम्पूर्ण जगत, कई आश्चर्यमय रूप ।
दिव्या चक्षु मैं तुझको देता, फिर देख रूप अनूप ।।
५
३३५. संजय बोले राजन प्रभु ने, दिखाया स्वरूप विराट ।
अनेक मुख और नैत्र थे, हाथों में शस्त्रों का ठाठ ।।
६
३३६. दिव्य माला और शस्त्र थे, दिव्य गंध का लेप ।
सीमा रहित वह परम देव थे, रूप अनोखा तेज ।।
७
३३७. मार्तण्ड हजारो नभ में जैसे, उदय हुए हों सब ही साथ ।
वह भी वैसा शायद ही हो, जैसा रूप दिखाया नाथ ।।
८
३३८. श्री कृष्ण की देह में, जग को देखा पार्थ ।
आश्चर्य से युक्त वह, बोला वचन हो आर्त ।।
९
३३९. हो आश्चर्य से युक्त वह, कर श्रद्धा से प्रणाम ।
जोड़ हाथ अर्जुन बोला, तब वाणी मधुर ललाम ।।
१०
३४०. "देव" आपकी देह में, सभी देवों का वास ।
ऋषि, मुनि और ब्रह्मा देखुँ, महादेव को खास ।।
११
३४१. अनेक मुख व नेत्र है, अनन्त रूप है नाथ ।
आदि, अन्त और मध्य नहीं, है सहस्त्रो हाथ ।।
१२
३४२. शंख, चक्र, गदा पद्म है, अति प्रकाश है तेज ।
सूर्य सम तेज पुञ्ज है, और नाग शेष की सेज ।।
१३
३४३. पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर हो, परम अक्षर हो आप ।
आश्रय रक्षक आप है, आप सनातन बाप ।।
१४
३४४. सूरज, चन्द्र प्रभु नेत्र है, परम आप बलवान ।
तेज अग्नि रूप मुख है, सर्व गुण धनवान ।।
१५
३४५. देव सब है आप में, करे सभी गुणगान ।
महर्षि , सिद्ध समुदाय सभी, नहीं पाते वो जान ।।
१६
३४६. एकादश रूद्र व आठ वसु, रिपु गन्धर्व समुदाय ।
विस्मित से सब देखते, सब नहीं जानी जाय ।।
१७
३४७. बहु कर, पाद , देख मुँह को, व्याकुल है सब लोक ।
मैं भी व्याकुल हूँ प्रभु अब, सुनो नाथ त्रिलोक ।।
१८
३४८. देखूं मैं विकराल मुँह में, पांडव कौरव जाते हैं ।
जैसे दौड़ नदी नाले सब, समा सागर में जाते हैं ।।
१९
३४९. है देवों में श्रेष्ठतम, प्रणाम मेरा स्वीकार करो ।
प्रसन्न हो कर प्रभुवर मेरा, सारा भय अब शीघ्र हरो ।।
२०
३५०. योद्धा तो मरेंगे ही, भले ही न कर युद्ध ।
अतः पार्थ खड़ा अब हो जा, मन को करले शुद्ध ।।
२१
३५१. तूँ तो केवल निमित मात्र है, हैं सब मेरे मारे हुए ।
विजय तेरी होगी सुनले, पूर्ण मनोरथ सारे हुए ।।
२२
३५२. है ! अनन्त सामर्थ्य युक्त भगवन, आपको बारम्बार प्रणाम ।
पूर्णब्रह्म हो आप सनातन, छाये हो सर्वत्र ललाम ।।
२३
३५३. वाही चतुर्भुज दर्शन दे, जिससे हो जावे भय चूर ।
फिर खड़ा हो युद्ध करूँ, बनू परम मैं शूर ।।
२४
३५४. सुन अर्जुन यह विराट रूप, केवल तेने देखा है ।
इससे पूर्व किसने देखा हो, नहीं कही यह लेखा है ।।
२५
३५५. ले फिर दिखाऊँ रूप चतुर्भुज, हो जा अब तूँ शांत ।
देखा पार्थ चतुर्भुज, मिट गया सब ही क्लांत ।।
२६
३५६. अर्जुन ! जो कोई मेरा भक्त है, लेता हूँ मैं तार ।
प्राप्त होता अन्त में, मुझको, कभी न होती हार ।।
ॐ तत्सदिति "विश्र्व रूप दर्शन योग" नामक एकादश अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
द्धादशो अध्याय (१२)
१
३५७. सगुण व निर्गुण भक्त में, कौन श्रेष्ठ है श्याम ।
दोनों श्रेष्ठ है पार्थ सुन, पाये परम धाम ।।
२
३५८. सगुण निर्गुण से सहज है, सहज आनन्द अपार ।
निर्गुण उतना सहज नहीं, है असी की धार ।।
३
३५९. परायण हो जा पार्थ मेरे, या निभाले योग ।
अन्त में मुझको पायेगा, कट जायेगा रोग ।।
४
३६०. द्धेष रहित और त्यागी है जो, वही शांति को पाता है ।
ऐसा भक्त मुझको है प्यारा, सो कभी नहीं घबराता है ।।
५
३६१. मित्र शत्रु जिसके सम है, सम है दुःख और सुख ।
गर्मी या सर्दी भले हो, नहीं समझता दुःख ।।
६
३६२. निंदा स्तुति में जो सम है, स्थिर बुद्धि कहलाता है ।
शरीर निर्वाह कैसे भी करता, मन को यूँ बहलाता है ।।
७
३६३. श्रद्धा युक्त हुवा जो जन है, धर्मं मय अमृत पीता है ।
ऐसा भक्त मुझको अति प्यारा, सुख से सदा जीता है ।।
ॐ तत्सदिति “भक्ति योग” नामक बारहवाँ अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
त्रयोदश अध्याय (१३)
१
३६४. यह शरीर क्षेत्र है पार्थ सुन, जाने जो क्षेत्रज्ञ ।
विकार रहित प्रकृति और पुरुष का, सबका मैं क्षेत्रज्ञ ।।
२
३६५. पंच महाभूत पंच तन्मात्रा, दसों इन्द्रियां रहती है ।
मन, बुद्धि, चित और, अहंकार की धारा बहती है ।।
३
३६६. इन सबसे परे हो कर, सम भाव से जो रहता है ।
भाव नहीं भोगों का रखे, सुख सदा ही बहता है ।।
४
३६७. सर्वत्र वही एक ब्रह्म है, जो कोई लेवे जान ।
सर्व बंध से मुक्त हो, करता अमृत पान ।।
५
३६८. जो तत्व को जान गया, जन्मे ना वह मरता है ।
ब्रह्म में लीन वह हो जाता, मोज सदा वह करता है ।।
६
३६९.कुछ ह्रदय में देख प्रभु को, ध्यान उसी का धरते है ।
कुछ योग साधन अपना कर, अज्ञान अपना हरते है ।।
७
३७०. कुछ तत्व वेता से सुन सुन कर, वैसा साधन करते है ।
ऐसे लोग भी साधन करते, भव सागर से तिरते है ।।
८
३७१. निर्लिप्त है यह आत्मा, जैसे है आकाश ।
सूर्य सम यह आत्मा, सदा करे प्रकाश ।।
ॐ तत्सदिति "क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग" नामक तेरहवाँ अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
चतुर्दशो अध्याय (१४)
१
३७२. उतम ज्ञान कहूँगा अर्जुन, सुन हो जाये पार ।
होते पार कई इस भव से, है यही एक सार ।।
२
३७३. ऐसे जन फिर पैदा नहीं होते, जब सृष्टि रचना होती है ।
नहीं होते व्याकुल प्रलय में, साडी सृष्टि जब सोती है ।।
३
३७४. सम्पूर्ण भूतों की योनि है, यह त्रिगुण मयी माया ।
चेतन रुपी बीज बोता हूँ, जिससे चलती सृष्टि काया ।।
४
३७५. त्रिगुण मयी माया माता है, जिससे सब यहाँ आते है ।
पिता उन सबका सुन मैं हूँ, गुण मेरे ही गाते है ।।
५
३७६. सत, रज और तम त्रिगुण, जीवात्मा को देह में बांधे है ।
सत्व निर्मित है अतः वह, ज्ञान प्रकाश को बांधे है ।।
६
३७७. रजोगुण से कामना आये, आसक्ति और बढ़ाता है ।
तमोगुण से इस देह में, अंधकार बढ़ जाता है ।।
७
३७८. सत्व सुख है रजो कर्म है, तमो से निद्रा प्रमाद ।
तमो ज्ञान को ढ़क लेता है, केवल आलस्य प्रमाद ।।
८
३७९. ज्ञान सत्व से, लोभ रजो से, तमो से आता अज्ञान ।
कटे न जन्म मृत्यु का चक्कर, चाहे जग ले छान ।।
९
३८०. सत्व स्वर्ग में, रजो लोक में, तमो ले जाये नर्क ।
जो रहे तीनो से परे, वो पाये मुझे नहीं फर्क ।।
१०
३८१. किन उपायों से मनुष्य, पर तीनो से होता है ।
भगवन कृपा कर यह बताये, कैसे बीज ज्ञान का बोता है ।।
११
३८२. किसी गुण की प्रवति पर, लिप्त जो नहीं होता है ।
सुख दुःख को जो सम माने, वही बीज ज्ञान के बोता है ।।
१२
३८३. मिटटी स्वर्ण पाहन में, रखे सदा सम भाव ।
ऐसा पुरुष ही धन्य है, लगे पार तब नाव ।।
१३
३८४. मान अपमान में रहे सदा सम, नहीं मित्र और वेरी ।
निश्चय मुझको वह पा जाता, किंचित लगे न देरी ।।
ॐ तत्सदिति "गुणत्रय विभाग योग" नामक चौदहवाँ अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
पञ्चदशो अध्याय (१५)
१
३८६. ब्रह्म रूप शाखा है जिनकी, परमेश्वर है मूल ।
संसार वृक्ष पीपल सम, वेद पते नहीं भूल ।।
२
३८७ . विषय रुपी कोंपले, शाखाएं हैं योनि रूप ।
वासना रुपी है जड़े, ऊपर निचे अनूप ।।
३
३८८ . नहीं इसका आदि है, ना मध्य ना अन्त ।
समझे इसे वैराग्य से, वे ही धन्य है संत ।।
४
३८९. इस देह में पार्थ सुन, जीव मेरा ही अंश ।
वे भी सब मेरे ही हैं, जो इसके है वंश ।।
५
३९०. योगी जाने आत्मा, समझे अपना वेश ।
अज्ञानी नहीं जान सके, ढूंढे देश विदेश ।।
६
३९१. जो तेज है सूर्य में, चाँद का जान ।
और अग्नि का तेज भी, मेरा ही है मान ।।
७
३९२. जीवात्मा अविनाशी है, शेष सभी का होता नाश ।
नाश के माने रूप को बदले, समझ सके कोई काश ।।
८
३९३. ये गोपनीय वचन कहे, समझे तो है सार ।
भव से होवे पार सुन, आये कुछ नहीं भार ।।
ॐ तत्सदिति "पुरुषोतम योग" नामक पन्द्रहवाँ अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
षोडशो अध्याय (१६)
१
३९४. निर्भय जो रहे सदा, रह पवित्र कर दान ।
मन वाणी से सदा सरल, वही है पार्थ महान ।।
२
३९५. क्षमा, धैर्य जिसमे रहे, नहीं वेर का भाव ।
लक्षण देवी सम्पदा, पार उतरती नाव ।।
३
३९६. आसुरी सम्पदा लक्षण हैं, काम, क्रोध अभिमान ।
नहीं मधुरता वाणी में, है यही अज्ञान ।।
४
३९७. देवी सम्पदा तारती, है आसुरी बंध ।
आसुरी माया है सम्पदा, वहां अंध ही अंध ।।
५
३९८. खाओ पीओ मोज करो, नहीं जगत में ईश ।
कहते आसुरी वाक्य ये, गई बुद्धि है घिस ।।
६
३९९. रहते अंधे लोभ में, नहीं समझ कुछ पाय ।
यह लूँ और वह भी ले लूँ, दिन रेन करे है हाय ।।
७
४००. उसे मारा अब इसको मारूँ, नहीं मुझ सा बलवान ।
सुखी बड़ा परिवार है मेरा, नहीं मुझ सा धनवान ।।
८
४०१. भर्मित चित अज्ञानी जन, फंसे मोह के जाल ।
ऐसों को सुन पार्थः तूँ, दूँ नर्क में डाल ।।
९
४०२. काम, क्रोध व लोभ ये, तीन नर्क के द्धार ।
तीनों को जो त्याग दे, लग जाता वह पार ।।
ॐ तत्सदिति "देवासुर संपद विभाग योग" नामक सोलहवां अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
सप्तदशो अध्याय (१७)
१
४०३. शास्त्र विधि को त्याग कर, देवदिक पूजन करे ।
उनकी स्थिति कहो कृष्ण अब, सत्व, रज या तम अरे ।।
२
४०४. सुन पार्थ सभी की श्रद्धा, अनुरूप अंतः होती है ।
श्रद्धा विहीन कुछ पाये नहीं, तत्व बुद्धि सब खोती है ।।
३
४०५. सात्विक पूजे देव को, राजस पूजे यक्ष ।
तामस पूजे प्रेत को, नहीं बुद्धि में दक्ष ।।
४
४०६. घोर तप में प्रवृत होते, और जो दम्भ करते है ।
पा नहीं सकते कभी भी मुझको, बुद्धि अपनी हरते है ।।
५
४०७. तीन प्रकार के भोज है, तीन प्रकार के दान ।
इनके भेद सब पार्थ तूँ, सुन खोल कर कान ।।
६
४०८. आयु, बल, व बुद्धि बढ़ाये, ऐसा भोजन जो करता है ।
सात्विक कहलाता है, दया उर में वह भरता है ।।
७
४०९. कड़ुए, खट्टे और मसाले, राजस जन सब खाते है ।
अधपका बासी रहित, तामस जन सब पते है ।।
८
४१०. तीन प्रकार के यज्ञ है, तीन प्रकार के तप ।
शास्त्र विधि ही उतम है, अन्य सभी है गप ।।
९
४११. देश,काल और पात्र देख, दिया जाय जो दान ।
कर्तव्य समझ जो बरते ऐसा, वह गौरव की खान ।।
१०
४१२. ऊपर लक्षण सात्विक का, अब तूँ राजस जान ।
क्लेश युक्त व स्वार्थ वस हो, करे नहीं वह दान ।।
११
४१३. देश, काल व पात्र न देखे, करे नहीं सत्कार ।
ऐसा तामस दान है, कहूँ यह ललकार ।।
१२
४१४. ॐ तत्सत सुन पार्थ तूँ, आनन्द ब्रह्म का नाम ।
ॐ से सब शुरू करे, दान यज्ञ का काम ।।
१३
४१५. सच्चिदानन्द पूर्ण ब्रह्म हूँ, श्रद्धा से जाना जाऊँ ।
बिना श्रद्धा का हवन, दान, तप, नहीं कभी मैं पाऊँ ।।
१४
४१६. असत कर्म से लाभ नहीं, इह लोक परलोक ।
सत कर्म सभी तूँ मानले, नहीं रहेगा शोक ।।
ॐ तत्सदिति "श्रद्धात्रय विभाग योग" नामक सत्रहवाँ अध्याय समाप्त ।
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति
अष्टादशो अध्याय (१८)
१
४१७. है महाबाहो, है वासुदेव, कहें तत्व त्याग सन्यास ।
सुन पार्थ ! मैं कहूँ अन्त में, इसका तत्व जो खास ।।
२
४१८. कई काम्य कर्म की, कई कहते फल त्याग ।
कई कहते सब दोष युक्त, समझे वह महाभाग ।।
३
४१९. मेरे निश्चय को कहता हूँ, सुन लगाले ध्यान ।
त्याग तीन है - सत तथा, राजस , तामस जान ।।
४
४२०. यज्ञ, दान और तपस्या, मत त्यागो ये कर्म ।
करते हैं पवित्र ये, समझो अब यह मर्म ।।
५
४२१. आसक्ति फल की त्याग कर, करो श्रेष्ठ सब कर्म ।
मोह, आलस्य दूर रह, न त्यागो कभी हो गर्म ।।
६
४२२. कर्म सभी दुःख रूप हैं, उचित नहीं यह कहना ।
जल में कमल जैसे रहता है, वैसे ही तुम रहना ।।
७
४२३. कर्मों के फल को जो त्यागे, त्यागी वही कहलाता है ।
रहे सदा संतुष्ट उसी में, धर्म सदा लहराता है ।।
८
४२४. नहीं किसी से द्धेष जिसे, नहीं किसी से मोह ।
पाने पर हर्षे नहीं, दुःखी नहो बिछोह ।।
९
४२५.' मैं कर्ता हूँ ' जिस पुरुष को, नहीं ऐसा है भाव ।
नहीं बंधता वह पाप से, नहीं उसे कुछ चाव ।।
१०
४२६. ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय ये तीनो, है प्रेरक कर्म ।
कर्ता, करण व क्रिया ये तीनो, कर्म संग्रह मर्म ।।
११
४२७. सब में एक ब्रह्म को जाने, है वह सात्विक ज्ञान ।
सम्पूर्ण भूतों में भिन्न भाव है, उसको राजस जान ।।
१२
४२८. देहासक्ति तत्व रहित जो, ऐसा तामस ज्ञान ।
शास्त्र विरुद्ध जो कर्म करे, नहीं अपना कुछ भान ।।
१३
४२९. कर्तापन अभिमान से, करे वह सात्विक कर्म ।
परिश्रम जिसमे बहुत है, वह है राजस कर्म ।।
१४
४३०. विचार नहीं जिसमे कुछ हो, हानि, हिंसा परिणाम ।
मोह, मतान्ध हो कर्म करे, उसे ही तामस जान ।।
१५
४३१. कर्ता, बुद्धि, धारणा, सबके त्रिगुण रूप ।
सुख का भी यही हाल है, है विचित्र अनूप ।।
१६
४३२. अंतःकरण की शुद्धि हो, नहीं लोभ अज्ञान ।
वहीँ पुरुष यहाँ धन्य है, सुख से जाये प्राण ।।
१६
४३३. पर हित कारन कष्ट सहे, रहे क्षमा का भाव ।
सहज लक्षण ये विप्र के, हो ज्ञान का चाव ।।
१७
४३४. धैर्यवान और वीर हो, देता और जो दान ।
क्षत्रिय लक्षण ये कहे, नहीं वह भूखा मान ।।
१८
४३५. गो पालन और कृषि करना, तथा सत्य व्यापार ।
ये लक्षण है वैश्य, समझे जो है सार ।।
१९
४३६. सेवारत जो रहे सदा, ये शूद्र के कर्म ।
अपने अपने कर्म के, समझो अब यह मर्म ।।
२०
४३७. अति गोपनीय ज्ञान कहा, करले अब तूँ ध्यान ।
मुख्य बात यही पार्थ है, हो जाये यदि ज्ञान ।।
२१
४३८. बोला पार्थ तब शीश झुका, हुआ नष्ट अब मोह ।
कृष्ण आपकी माया को, जाना हूँ, ओह ! ।।
२२
४३९. संजय बोले सुन राजन, जहाँ कृष्ण है पास ।
वहाँ विजय ही विजय रहे, नहीं पराजय आस ।।
२३
४४०. गीत गीता सुधा रास, करो सज्जन सब पान ।
सार है चारों वेद का, तत्व उपनिषद् जान ।।
२४
४४१. विक्रम संवत साल यह, दो हजार चौब्बीस ।
मार्गशीर्ष शुक्ल नोमी है, दिन रवि शुभ ईश ।।
२५
४४२. छन्द चालीस और चारसो, सरल गीता यह सार ।
गाने में सुन्दर लगे, सार वेद, नहीं भार ।।
२६
४४३. दिसम्बर दिनांक दस है, उन्नीसो सतसठ साल ।
सरल सार यह पूर्ण हुआ, वय पञ्च तीस साल ।।
ॐ तत्सदिति "मोक्ष सन्यास योग” नामक अठारवाँ अध्याय समाप्त ।
सरल गीता सार पूर्ण
हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत
ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति